शौक-ए-दीदार अगर है तो नज़र पैदा कर। स्कूल की मिट चुकी तमाम स्मृतियों में से एक यही लाइन बची रह गई। बाकी आज तक नहीं समझ पाया कि दस बारह सालों तक स्कूल क्यों गया? बरसो से मन में कई बातों का तूफ़ान चल रहा है. दिल करता है की अब उसे शब्दों के पिरो दूँ . ब्लॉग के मंच पर पेश है मेरी अभिव्यक्ति.
शुक्रवार, 9 जुलाई 2010
सोमवार, 21 जून 2010
आँखे खोल कर कब तक इंतजार
रविवार, 20 जून 2010
दुनिया में गैसकांड के प्रमुख मामले
इसमें 3 हजार किलो डायवोसिन गैस का रिसाव हुआ था। इससे 37 हजार लोग प्रभावित हुए थे। पीडितों के लिए दस बिलियन डॉलर मुआवजा राशि स्वीकृत हुई थी। पांच आरोपियों को हादसे के दस वष्ाü बाद 1986 में दो वष्ाü का कारावास हुआ था।
- 26 अप्रेल 1986 में रूस के चैरनोबल परमाणु केन्द्र में हादसा :
यहां यूरेनियम और प्लेटिनम रिएक्टर फट जाने से करीब 50 हजार से अधिक लोगों की मौत हो गई थी। 30 हजार लोग तो तत्काल मौत की गोद में चले गए थे। थे। हादसे का रेडियो एक्टिव कचरा रूस सरकार के आदेश पर जमीन के नीचे दबा दिया गया था।
- 13 जून 1997 उपहार सिनेमा अग्निकांड :
इस दुर्घटना में 59 की मृत्यु हुई थी और 103 घायल हुए थे। दोषियों को दो वर्ष का सश्रम कारावास और अर्थदण्ड की सजा हुई थी। साथ ही 15 लाख रूपए प्रति व्यक्ति मुआवजा राशि दी गई थी। हादसे में 20 लोगों ऎसे थे, जिन्हें मुआवजा राशि 18 लाख रूपए मिली
देर भी अंधेर भी

सात दोषियों को दो साल की सजा, जमानत पर छूटे
भोपाल। दुनिया की भीषणतम औद्योगिक त्रासदी को लेकर चल रहे मुकदमे में जिला अदालत ने सोमवार को फैसला सुनाते हुए यूनियन कार्बाइड के चेयरमैन केशव महेंद्रा सहित 7 आरोपियों को दोषी ठहराया। सभी को दो-दो साल सश्रम कारावास व 1.01 लाख रूपए जुर्माने और यूनियन कार्बाइड को 5.01 लाख रूपए जुर्माने की सजा सुनाई गई।
हालांकि दोषी जेल नहीं पहुंच सके।
उनकी ओर से धारा 389 के तहत पेश आवेदन स्वीकार कर लिया गया। अब वे एक माह में सेशन कोर्ट में अपील कर सकेंगे। आरोपियों ने 25-25 हजार का जमानत-मुचलका पेश किया, जो स्वीकार कर लिया गया।
उल्लेखनीय है कि भोपाल गैस कांड पर 26 साल बाद सोमवार को फैसला आने के बाद मोइली ने फैसले पर असंतुष्टि जताई थी। मोइली ने कहा था कि इस मामले में फैसला बहुत देर से आया और इसे व्यावहारिक रूप से स्वीकार नहीं किया जा सकता। उन्होंने कहा कि इस मामले में न्याय को दबा दिया गया। इस मामले में एक फास्ट ट्रेक अदालत की जरूरत थी जो मामले की जांच कर दोषियों को सजा दिला पाती।
जुर्माना सुनते ही मुस्करा दिए दोषी
कोर्ट में यूका के चेयरमैन केशव महेंद्रा सहित 6 आरोपी मौजूद थे। फैसला मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी मोहन प्रकाश तिवारी ने सुनाया, जिसे सुन आरोपियों ने राहत की सांस ली। उन्हें भारी जुर्माने और मुआवजे की उम्मीद थी। इसके बाद आरोपियों के चेहरे पर मुस्कान आ गई। सबने चंद पलों में जुर्माना राशि जमा करा दी।21;री वीरप्पा मोइली, रसायन और उर्वरक मंत्री अलागिरी, शहरी विकास मंत्री एस जयपाल रेड्डी, शहरी गरीबी निवारण मंत्री कुमारी शैलजा और विज्ञान और तकनीक राज्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण शामिल है। जीओएम इस तरह के मामलों में आपराधिक जिम्मेदारी तय करने और पीडितों को मुआवजे बढ़ाए जाने संबंधी नियमों पर विचार करेगा।
इससे पहले, मध्यप्रदेश सरकार ने बुधवार को ही इस मामले की नए सिरे से समीक्षा के लिए समिति गठित करने की घोषणा की। इस पांच सदस्यीय कमेटी में शामिल कानून के जानकार नए सिरे से भोपाल गैस कांड की समीक्षा कर सरकार को सिफारिश देंगे। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कमेटी गठित करने का ऎलान करते हुए कहा कि इस मामले को गंभीरता से नहीं लिया गया। पीडितों के साथ न्याय नहीं हुआ। गैस कांड के पीडित अदालत के फैसले से खुद को ठगा सा महसूस कर रहे हैं।
उन्होंने कहा कि राज्य सरकार ने इस मामले की नए सिरे से समीक्षा के लिए एक पांच सदस्यीय कमेटी गठित की है। यह कमेटी 10 दिनों में अपनी शुरूआती रिपोर्ट देगी और एक महीने के भीतर अंतिम जांच रिपोर्ट पेश कर देगी। कमेटी की सिफारिशें मिलने के बाद उच्च न्यायलय में अपील की जाएगी। चौहान ने कहा कि सिफारिशों के आधार पर आवश्यक कानूनी कार्रवाई की जाएगी।
उल्लेखनीय है कि एमनेस्टी इंटरनेशनल सहित दुनिया भर के मानवाधिकार संगठनों ने गैस कांड के 7 जून को आए फैसले को टू लेट, टू लिटिल करार दिया था।
ये हैं गुनाहगार
1. यूका के मालिक वारेन एंडरसन
2. यूसीआईएल भोपाल के चेयरमेन केशव महिन्द्रा
3. मैनेजिंग डायरेक्टर विजय गोखले
5. वाइस प्रेसिडेंट किशोर कामदार
6. वर्क्स मैनेजर जे मुकुंद
7. असिस्टेंड वर्क्स मैनेजर डॉ. आरपीएस चौधरी
8. प्रोडक्शन मैनेजर एसपी चौधरी
9. प्लांट सुप्रीटेंडेंट केपी शेट्टी
10. प्रोडक्शन असिस्टेंट एमआर कुरैशी सहित यूका कार्पोरेशन लि. यूएसए, यूसीसी ईस्टर्न इंडिया हांगकांग और यूका इंडिया लि. कोलकाता पर मुकदमा चल रहा है। भोपाल गैस कांड के आरोपियों में से मुख्य आरोपी वारेन एंडरसन, यूका कार्पोरेशन लि. यूएसए और यूसीसी ईस्टर्न इंडिया हांगकांग फरार घोषित हैं। जबकि आरपीएस चौधरी की मौत हो चुकी है।
आँखों में गुस्सा हाथो में सवाल

भोपाल में हजारो लोगों की मोत के मामले में क्या यूनियन कर्बयद जितना ही दोषी अर्जुन सिंह नहीं है. जिन लोगो को वोट बैंक मान कर दुहा है अर्जुन सिंह उन लोगो की मौत पर अमरीका की दलाली करने से नहीं चुके वैसे अर्जुन सिंह का राजनीतिक जीवन भी कुटिलताओ चमचागिरी और दलाली से भरा रहा है वे हमेशा कांग्रेस नेता की जगह गाँधी परिवार के वफादार .................. अधिक नजर आये जिसका उन्होंने लाभ उठाया और भोपाल ने उस की कीमत चुकी.
सोमवार, 10 मई 2010
मिथ्या जीवन के कागज़ पर सच्ची कोई कहानी लिख
जब सोणी ने महिवाल का हाथ थामा होगा अथवा हीर ने रांझे को चाहा होगा, तब कबीर लिखते हैं `ढाई आखर प्रेम के पढ़े सो पंडित होय…।´
किसने सोचा था कि अरब के अरबपति शाह अमारी का बेटा `कैस´ और नाज्द के शाह की बेटी लैला में दशमिक के मदरसे में पढ़ाई के दौरान उपजा प्रेम लैलामंजनूं के इश्क के रूप में दुनिया में मशहूर होगा और उन दोनों की कब्र दुनियाभर के प्रेमियों की इबादतगाह होगी।
किसने सोचा था कि द्वापर में कृष्ण की उपेक्षा से आहत हुई माधवी नाम की एक गोपी कलिकाल में मीरांबाई बनकर प्रेम के नए अध्याय के रूप में आलौकिक प्रेम को जन्म देगी। यहाँ राधा और मीरां में तुलना करें तो पाएंगे कि राधा को कान्हा के खो देने का डर था और मीरां को विश्वास था कि वह कृष्ण के लिए ही बनी है।
राधा कृष्ण को पाना चाहती थीं और मीरां खुद को सौंपना चाहती थी। इन दोनों में कौन जीता यह तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन मीरां ने कृष्ण में समाकर साबित कर दिया कि प्रेम में धैर्य, आयास और समर्पण का भाव हो तो ईश्वर को पाना भी मुश्किल नहीं।
आज की दुनिया संत वेलेंटाइन को प्रेम का आदर्श मानती है। कहते हैं कि जमाना विरह के गीत लिखने का नहीं, फंडू व शायरी वाले एसएमएस-ईमेल का है। युवा पीढ़ी बिछुड़ने की वेदना के अहसास को स्वप्न में भी नहीं सोचना चाहती। प्रेम केवल एक स्त्री का पुरुष अथवा पुरुष का स्त्री के प्रति का अहसास या भाव नहीं होता।
उनमें आकर्षण होना स्वाभाविक है, लेकिन अब वह जमाना नहीं रहा कि किसी शकुन्तला की वेदना पर कोई कालीदास अभिज्ञानशाकुन्तलम जैसे महाकाव्य की रचना कर बैठे। न वे भाव रहे कि चिमटा न होने के कारण रोटी बनाते समय किसी हामिद की बूढ़ी दादी की जली हुई उंगलियों के दर्द को महसूस कर कोई प्रेमचंद कहानी करे। किसी शबरी के झूठे बेरों की मिठास से प्रभावित होकर कोई तुलसी चौपाइयां लिखे। किसी नन्हें कान्हा के ठुमक-ठुमक कर चलने पर कोई सूरदास छन्द रचे। न तो प्रेम की पीर का कोई घनानंद बचा है और न ही विरह की मारी दरद दीवानी मीरां। आज के वलेंटाइन-डे को वैदिक संस्कृति में मदन महोत्सव के रूप में जाना जाता रहा है, लेकिन न तो आज के लिए लेखकों के लिए वैदिक संस्कृति में वर्णित प्रेम पर कुछ लिखने की सोच है और न ही आज के युवाओं को पढ़ने की फुर्सत।
मिथ्या जीवन के कागज़ पर सच्ची कोई कहानी लिख ,
नीर क्षीर तो लिख ना पाया पानी को तो पानी लिख ।
सारी उम्र गुजारी यूँ ही रिश्तों की तुरपाई में,
दिल का रिश्ता सच्चा रिश्ता बाकि सब बेमानी लिख ।।
हार हुई जगत दुहाई देकर ढाई आखर की हर बार,
राधा का यदि नाम लिखे तो मीरां भी दीवानी लिख।
इश्क मोहब्बत बहुत लिखा है लैला-मंजनूं, रांझा-हीर,
मां की ममता, प्यार बहिन का इन लफ्जों के मानी लिख।।
पोथी और किताबों ने तो अक्सर मन पर बोझ दिया
मन बहलाने के खातिर ही बच्चों की शैतानी लिख
कोशिश करके देख पोंछ सके तो आंसू पोंछ
बांट सके तो दर्द बांटले पीर सदा बेगानी लिख।।
गुरुवार, 6 मई 2010
तकदीर हो तो ऐसी.
मंगलवार, 27 अप्रैल 2010
महंगा होगा सरकारी इलाज
कोटा। कोटा जिले की सरकारी डिस्पेंसरियों और सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों में अगले महीने से इलाज महंगा हो जाएगा। जिले की सभी डिस्पेंसरियों और सीएचसी में आने वाले रोगियों से शुल्क वसूला जाएगा। यह राशि 2 रूपए से लेकर 5 रूपए तक हो सकती है। इसको अंतिम रूप देने की तैयारी चल रही है।
सूत्रों के अनुसार जिले की सभी डिस्पेंसरियों में राजस्थान मेडिकेयर रिलीफ सोसायटी का गठन किया जाएगा। ग्रामीण इलाकों में अधिकांश डिस्पेंसरियों में सोसायटी गठित है। शहर की 13 डिस्पेंसरियों में सोसायटी नहीं है। इनमें गठन की प्रक्रिया चल रही है। इस माह के अंत तक सभी सोसायटियां अस्तित्व में आ जाएंगी।
परामर्श के दो, भर्ती के पांच रूपए
सोसायटियां बैठक कर अपनी-अपनी डिस्पेंसरी और सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों में आउटडोर और भर्ती रोगियों से वसूले जाने वाले शुल्क का निर्धारण करेंगी। माना जा रहा है कि संभवत: दो रूपए आउटडोर और पांच रूपए भर्ती होने वाले रोगियों का शुल्क होगा। जहां सोसायटियां गठित हैं और शुल्क वसूली नहीं की जा रही है। वहां भी शुल्क तय कर वसूलने को कहा जा रहा है।
ऎसी होगी सोसायटी
सोसायटी में सीएमएचओ अध्यक्ष और डिस्पेंसरी प्रभारी सचिव होंगे। इलाके के दानदाता व सामाजिक कार्यकर्ता इसमें सदस्य होंगे। इन सोसायटियों का सहकारिता विभाग में पंजीयन कराया जाएगा।
मेडिकल कॉलेज के अस्पताल होंगे निशुल्क
कोटा में मेडिकल कॉलेज से सम्बद्ध एमबीएस, जेकेलोन और न्यू मेडिकल कॉलेज अस्पताल में उपचार निशुल्क रहेगा। इन अस्पतालों में पूर्व में दो बार शुल्क लगाने की तैयारी की गई थी, लेकिन स्थानीय जनप्रतिनिधियों के दखल के बाद स्थगित कर दिया गया था। दादाबाड़ी सीएचसी में भी शुल्क वसूली तय कर दी थी, लेकिन वसूली नहीं हो सकी थी।
अगले महीने से सभी डिस्पेंसरियों और सीएचसी पर शुल्क वसूला जाएगा। वसूले गए शुल्क को संबंधित अस्पताल के विकास कार्य में लगाया जाएगा।
-डॉ. गजेन्द्र सिंह सिसोदिया, सीएमएचओ, कोटा
बुधवार, 7 अप्रैल 2010
जोर लगा के हई शह.........
वार्ड जाये भाड़ में जम कर लुंगी........
दरा का "दिल" छलनी
राजेश त्रिपाठी
कोटा। दरा अभयारण्य का "दिल" कहे जाने वाले गिरधरपुरा से लक्ष्मीपुरा क्षेत्र तक जीवन का आधार "हरियाली" का "कत्लेआम" जारी है। इसे "देखने" व "रोकने" वाला कोई नजर नहीं आता। नजरें उठाकर देखें तो जहां-तहां "हरे-भरे" पेड़ों की जगह कटे हुए "ठूंठ" नजर आते हैं। यह जंगल हाडोती का सर्वाधिक सघन वन क्षेत्र है। कई स्थानों पर इसकी सघनता और विविधता रणथम्भौर से भी "उन्नत" मानी जाती है। हां, वनकर्मियों की मौजूदगी के चलते इस अभयारण्य के "मुख्य द्वार" के आसपास सघन हरियाली बची हुई है।
गिरधरपुरा से लक्ष्मीपुरा तक कटाई
गिरधरपुरा गांव आने से पहले ही जगह-जगह पेड़ों के ठूंठ नजर आने लगते हैं। पत्रिका संवाददाता जब मौके पर पहुंचा तो गांव के तालाब के पास लोगों ने हरे वृक्षों को आधा काटकर गिरा रखा था। ग्रामीणों का कहना है कि अधिकांश लोग इसी तरह से पेड़ों की कटाई करते हैं। वे पेड़ को आधा काट कर छोड़ देते हैं और पेड़ के सूखने पर उसे ले जाते हैं। गिरधरपुरा से आगे भी बड़ी संख्या में पेड़ काटे गए हैं। यहां से आंबापानी और दामोदरपुरा तक काफी लंबे वन क्षेत्र में पेड़ों की कटाई हो रही है।
परिवार 25, मवेशी 2500!
दरा में बसे गांवों में परिवारों की संख्या कम और मवेशी अधिक हैं। कई जगह तो 25-30 परिवारों के गांव में मवेशियों की संख्या सौ गुना तक है। ये मवेशी जंगल में ही चराई करते हैं और यहीं उनका दूध निकालकर गर्म किया जाता है, जिसके ईंधन के लिए ये लोग हरे-भरे पेड़ों को काट देते हैं। इसके अलावा जंगल की लकड़ी को जलाकर खाना बनाने के काम में भी लिया जा रहा है।
चट कर रही है दीमक
हालांकि यहां बड़ी तादाद में पेड़ स्वत: भी गिर जाते हैं तो कुछ अधिक पुराने होने के कारण धराशायी हो जाते हैं। पूरे इलाके में ऎसे हजारों सूखे पेड़ जमीन पर पड़े हैं, लेकिन इन पेड़ों का न तो कोई इस्तेमाल कर रहा है और न ही ले जा रहा है। कई पेड़ों के आसपास दीमक भी हैं, जो लकड़ी को चट कर रही हैं।
प्रयास न हो जाएं विफल
दरा अभयारण्य को राष्ट्रीय उद्यान बनाने के लिए कोटा के विभिन्न संगठन प्रयासरत हैं। ऎसे में यहां की "हरियाली" पर बेधड़क चल रही कुल्हाड़ी जंगल के साथ ही राष्ट्रीय उद्यान बनाने के प्रयासों को भी धक्का पहुंचा सकती है।
"ठूंठ" का शासन!
दरा अभयारण्य में गिरधरपुरा से लक्ष्मीपुरा तक क्षेत्र में पेड़ों की अवैध अंधाधुंध कटाई जारी है, जिसे देखने वाला यहां कोई नहीं। वर्तमान में हाडोती के इस सघन वन क्षेत्र के हालात ऎसे हैं कि कई जगह तो पता ही लगता कि किसी सपाट मैदान में खड़े हैं या अभयारण्य क्षेत्र में।
मंगलवार, 6 अप्रैल 2010
लेकिन अमीरी रेखा क्यों नहीं
मैं यह लेख भारत की दिर्घायु ग़रीबी पर नहीं लिख रहा हूं। अमीरों पर लिख रहा हूं। सवा लाख करोड़पतियों का देश। विश्व संपदा रिपोर्ट कहती है कि करोड़पतियों की संख्या हर साल बीस फीसदी की रफ्तार से बढ़ रही है। रिपोर्ट यह नहीं बताती कि इसमें नए करोड़पति शामिल हो रहे हैं या वही पुराने वाले ही हो रहे हैं। क्या इसमें सरकारी महकमों में रिश्वतखोर,दलाल, दारोगा, तहसीलदार,इंजीनियर,ज़िलाधिकारी,कर चोर व्यापारी आदि को भी शामिल किया गया है? ये सब भारत के अनधिकारिक करोड़पति हैं। इनकी संख्या भी लाखों में होती। मैं कब से कह रहा हूं हमारी सामाजिक व्यवस्था में रिश्वतखोरी अब अतिरिक्त आय का साधन है। इस पर फ्रिंज बेनिफिट यानी सीमांत लाभ कर लागू होना चाहिए। इससे सरकार को धन मिलेगा और भारत का दुनिया में नाम होगा कि हमारे यहां लंदन सिंगापुर से भी ज़्यादा करोड़पति हैं। सबको शामिल नहीं कर पाने की व्यवस्था के कारण ही हमारे देश में सर्वे फेल हो जाते हैं।
और तो और नए सर्वे में करोड़पतियों के घरों को शामिल नहीं किया गया है। इससे कई लखपति करोड़पित होने से वंचित हो गए। इसमें सिर्फ व्यावसायिक संपत्ति और शेयर बाज़ार में निवेश और बचत को आधार बनाया गया है। हम सब के मकान जिसकी लागत पांच लाख रुपये हैं और बाज़ार में कीमत पचास लाख इसे शामिल नहीं किया गया है। लगता है करोड़पति क्लब को सीमित रखने की साज़िश चल रही है। खैर करोड़पति बनने से रह गए लाखों लखपतियों को हमारी तरफ से सांत्वना। वैसे भी हमारे देश में कोई कहता नहीं कि वो करोड़पति है। आप कहेंगे तो जवाब मिलेगा अरे कहां साहब। करोड़ होते तो काम करता। घर का खर्चा इतना की रात को नींद नहीं आती। सामाजिक तौर पर हम नहीं बताते कि कितना पैसा है। बेटा अपने पिता से कहेगा कि बैंक में एक रुपया नहीं। बेटे के बाप ने भी अपने बाप से यही कहा। भाई अपने भाई से छुपाता रहता है कि पैसे की कितनी तंगी है। भाभी और बहन झगड़ते रहते हैं कि कैसे पुरानी साड़ी से काम चलाई जा रही है। एक रुपया नहीं है। पैसे को लेकर झूठ बोलने का संस्कार हमारा परिवार सीखाता है। फिर किसने कहा कि वो करोड़पति है। मुझे तो सर्वे पर शक हो रहा है।
तभी देश में कौन बनेगा करोड़पति फ्लाप हो गया। पांच साल पहले जब स्टार प्लस ने पहली बार शुरू किया तो प्रोग्राम हिट हो गया। दूसरी और तीसरी बार फ्लाप हो गया। करोड़पति बनने का चार्म ख़त्म हो गया। टीवी का दर्शक दूरदर्शन के हमलोग वाले फटेहाल कलाकारों वाला नहीं रहा। वो अमीर हो चुका है। इसलिए करोड़पति बनने का सपना लुभाता नहीं।
और इसीलिए अमीरी रेखा नहीं है। इसका दायरा अनंत है। कोई भी कहीं तक जा सकता है। सौ कार की जगह हज़ार चौरासी कारों का मालिक बन सकता है। किसी अर्थशास्त्री को समझ में नहीं आया कि अमीरों के लिए रेखा कैसे बनाए? पैमाने क्या हों? कई लोगों के पास कार है टीवी है मकान है मगर आदत है कि कहेंगे कि ग़रीब हैं। ऐसा क्यों होता है?
वन्यजीवों के कंठ सूखे
राजेश त्रिपाठी
कोटा। गर्मी बढ़ते ही दरा अभयारण्य के प्यासे वन्य जीव लम्बा रास्ता तय कर गांवों में आने लगे हैं। ऎसे हालात में अभयारण्य में पानी उपलब्ध कराने की वन विभाग की तैयारियां ऊंट के मुंह में जीरे के समान है। गावों की तरफ पलायन वन्य जीवों व ग्रामीणों के लिए खतरनाक भी हो सकता है। अभयारण्य में जगह-जगह बने एनीकट और पानी की टंकियां सूखी पड़ी हैं, वहीं प्राकृतिक जल स्त्रोत भी रीत चुके हैं।
दरा में पेंथर, हरिण, चीतल, जंगली सुअर, नीलगाय, खरगोश, बंदर समेत विभिन्न प्रजातियों के हजारों वन्यजीव और पक्षी हैं। यदि हालात नहीं सुधरे तो आने वाले दिन वन्य जीवों के लिए भयावह हो सकते हैं।
पत्रिका संवाददाता ने कोलीपुरा से दरा तक करीब चालीस किलोमीटर लंबे इस अभयारण्य का दौरा तक हालात का जायजा लिया। यहां गांवों में तो पेयजल सुलभ हैं, लेकिन अभयारण्य क्षेत्र में बनाए गए दर्जनों एनिकट सूखे पड़े हैं। इस विशाल जंगल में केवल अभयारण्य के प्रवेश द्वार के पास ही दो स्थानों पर पानी नजर आया।
गिरधरपुरा के आगे सूखा
कोलीपुरा से गिरधरपुरा के बीच दो स्थानों पर पानी है, जिनमें एक स्थान पर कुआं है। गिरधरपुरा में तालाब बना हुआ है, जिसमें पानी रीतने लगा है। अगले कुछ दिनों में ये तालाब मैदान में तब्दील होने वाला है। गिरधरपुरा से आगे पानी की व्यवस्था नहीं है। पानी के अभाव में इस इलाके में वन्यजीव भी कम नजर आते हैं। इससे आगे अम्बापानी में बरसों पुराना प्राकृतिक जलस्त्रोत है। इसमें एक पहाड़ी से पानी आता है, जो काफी कम है। यहां एक गaे में गंदा पानी भरा हुआ है, जहां वन्यजीव नहीं आते।
भटकते रहते हैं वन्य जीव
लक्ष्मीपुरा के नानूराम के अनुसार, गिरधरपुरा से दामोदरपुरा पंद्रह किलोमीटर दूर है। इसके बीच में कोई जलस्त्रोत नहीं है। दामोदरपुरा से लक्ष्मीपुरा पांच किलोमीटर है। यहां भी वही स्थिति है। ऎसे में वन्य जीव पेयजल के लिए इन गांवों के बीच ही भटकते रहते हैं। गांवों में रहने वाले हजारों मवेशी भी इन्हीं जलस्त्रोतों पर निर्भर हैं। लक्ष्मीपुरा में वन विभाग के कर्मचारी ने बताया कि रात के समय लक्ष्मीपुरा में अलग-अलग समूहों में वन्यजीव पानी के लिए आते हैं। दामोदरपुरा में काफी आबादी है। वहां भी रात को अंधेरे में वन्यजीव पानी की तलाश में पहंुचते हैं।
रविवार, 4 अप्रैल 2010
युवतियां और युवतियां
मैं हर दिन हिंदी अखबारों में युवतियों को देख कर परेशान हो गया हूं। युवकों का भी मन मचलता होगा। युवक भी बारिश में भींगते होंगे। युवक भी कालेज में पहले दिन जाते होंगे। युवक भी सीबीएसई के इम्तहान पास करते होंगे। उनकी तस्वीरें तो छपती ही नहीं। यह मान लेने में हर्ज नहीं कि लड़कियों से सुंदर दुनिया में कुछ नहीं। मगर उस सुंदरता को एक खास नज़र से देखना तो कुंठा ही कहलाती होगी।
मुझे आज तक कोई भी लड़की नहीं मिली जो खुद को युवति कहती हो। मिसाल के तौर पर मैं सपना एक युवती हूं। लड़कियों से लड़की लोग जैसे सामूहिक संबोधन तो सुना है मगर युवती लोग या युवतियां नहीं सुना है। पता नहीं अख़बार में कहां से युवतियां आ जाती हैं। आपको कोई अख़बार का संपादक मिले तो पूछियेगा।
गुरुवार, 25 मार्च 2010
रोमांटिक लव लेटर

(हस्त पुस्तिका प्रेम-पत्र रोमांटिक लव लेटर। लेखक हैं अवधेश कुमार उर्फ मुंशी जी।)
मुंशी जी सही मायने में प्रेमचंद हैं। प्रेम के तमाम एंगल पर ख़त लिखने का हुनर किसी साहित्य अकादमी वालों की नज़र से नहीं गुजरता। देश की गलियों में पलते हुए बुढ़ा रही तमाम प्रतिभाओं के सम्मान में बिना मुंशीजी से पूछे उनकी एक महान रचना को इंटरनेट पर पेश किया जा रहा है। मुंशी जी की दुनिया में आज भी ख़त पत्र है।
शीर्षक- अनजाने प्रेमी का पत्र
जाने सनम,
जब से मैंने आपके सौंदर्य को एक नज़र निहारा है तब से दिल बेकरार है। अब आप को बग़ैर जाने पहिचाने ही कैसे किसी पर मोहित होकर प्यार जताने का अधिकार है। सवाल ठीक है परन्तु दिल जब आ जाता है तो किसी से रोके नहीं रुकता। अब सवाल यह उठता है कि प्यार अनजाने क्यों किया?मेरी जान,प्यार करने से नहीं बल्कि हो ही जाता है चाहे किसी से भी हो जाए तभी तो जब से आपको देखा है तब से पहलू में दिल बेचैन है,मैं स्वयं भी समझने में असमर्थ हूं क्योंकि-
दिल आ गया तुम पर, दिल ही तो है।
तड़पे क्यों न, बिसमिल ही तो है।।
मैं क्या बताऊं कि मुझे क्या हो गया। हर समय दिल काबू से बाहर हो गया। माइन्ड पर कंट्रोल नहीं रहा है। मेरे दिल की मलिका, मैंने आपको जब से सुभाष पार्क में गांधी जयंती में अपने परिवार के साथ टहलते देखा तब से ही ह्रदय में एक हलचल पैदा हो गई जिसे मैं रोकने में असमर्थ हूं और बहुत देर से न्योछावर करता हूं। यूं तो आज तक लाखों हसीना मेरी आंखों के आगे गुज़रे होंगे परन्तु ईश्वर ने आपकी अदा ही निराली बक्शी है। जिसने मुझे दीवाना बना दिया।
देखा जो हुश्न आपका, तबियत मचल गई।
आँखों का था कसूर, छुरी दिल में चल गई।।
प्रिय जाने मन और गुलबदन तुम क्या जानो कि आपको वियोग में हमारे दिल पर क्या क्या गुजर रही है। दिन पर दिन दहशत बढ़ती जा रही है। ख्याल बदलते जाते हैं। आखिर दिल बेचैन हो कर यही कहता है-
तुझे क्या खबर वे मुर्ब्बत किसी की।
हुई तेरे गम में क्या, हालत किसी की।।
इतना ही नहीं इश्क के सिद्धांत यहां तक बढ़ गई कि पागलों की तरह मारा मारा आपकी कोठरी के इर्द-गिर्द फिरता हूं। इस ख्याल में कि एक बार वो चांद सा मुखड़ा देखने का अवसर मिल जाए ताकि ये तड़पता हुआ दिल किसी तरह तस्कीन पाए।
रात दिन सोचते हुए समय व्यतीत कर दिया, फैसला हो न सका। आखिर आत्मघात कर लेने का विचार किया परन्तु आपका प्रेम और दर्शन की आशा ने मुझे मरने भी नहीं दिया।आपको कालिज पहुंचाने को आपका ड्राइवर कार लाया और आपको बुलाने ज्यों ही अंदर गया बस मेरी आत्मा प्रफुल्लित हो गई। मैंने शीघ्र ही यह प्रेम पत्र जान बूझकर सुन्दर लिफाफे में बन्द करके आपकी सीट पर डाल दिया। अब इंतजार पत्र के उत्तर पाने को है। अब आप चाहे जो कहें मगर मैं तो यही कहूंगा-
जवानी दीवानी गजब ढा रही है।
मोहब्बत के पहलू में लहरा रही है।।
किया खत का मजमून खतम चुपके चुपके।।
रुकी अब कलम यहीं पर चुपके चुपके।
अधिक क्या लिखूं रंग लाने को ही बहुत है।
आपका अनजाना प्रेमी सतीश
श्वेत अश्वेत......क्यूं
जो काला है वो काला है। जो गोरा है वो गोरा है। अश्वेत कह कर आप किसी काले को ही संबोधित करना चाहते हैं। ठीक है कि काले की संवेदनशीलता का ख्याल रखा जाता है पर क्या वो नहीं जानता कि अश्वेत सिर्फ एक बहाना है। असल में आशय काला ही है। बराक ओबामा को हिंदी मीडिया के स्टाइल शीट प्रोफेसर क्या लिखें। अश्वेत या श्वेत। ओबामा की हर खबर में यह फटीचर शब्द आता है। अश्वेत। काला शब्द में खराबी नहीं। सिर्फ उसके पीछे की अवधारणा में है। जो लड़ाई लड़ी जा रही है वो काला शब्द के खिलाफ नहीं है बल्कि अवधारणा से होगी। वो अवधारणा जिसे समाज तय करता है।
तभी तो बोली मुसकाती मैया सुन मेरे प्यारे। गा गा कर यशोदा नंद के सवालों का जवाब नहीं देती। मगर यशोदा यह नहीं कहती कि काला होना खराब है। बेटे कान्हा तुम काले नहीं अश्वेत हो। राधा भी गोरी नहीं कान्हा, वो तो श्वेत है। ऑटोग्राफ का हिंदी में क्या शब्द हो। यह धारणा तो हिंदी की नहीं है न। मुझे नहीं लगता कि हनुमान ने राम और सीता का ऑटोग्राफ मांगा होगा या अकबर ने तानसेन। वर्ना इसका भी हिंदी शब्द होता ही। नहीं है तो ऑटोग्राफ कहने में क्या हर्ज़।
मुझे नहीं पता ओबामा क्या करेंगे। एक काला राष्ट्रपति। हमारे यहां भी कई काले और गोरे राष्ट्रपति बन चुके हैं। लेकिन नस्ल का भेद यहां नहीं। रंग का है। शादियों में लड़का पूछता है कि दुल्हन गोरी है न। शादी के विज्ञापनों में लिखा होता है कन्या गौर वर्ण की है। ये एक और अति है। गौर वर्ण। मोरा गोरा रंग लई ले...मोहे श्याम रंग दई दे....रंगों का एक्सचेंज ऑफर है इस गाने में। मोरा श्वेत रंग लई ले नहीं है।
बाली उम्र मैं ये कैसा रोग
कोटा। कच्ची उम्र के बच्चों में अपने साथियों के प्रति इस तरह के "घातक" आकर्षण से न केवल परिजन, बल्कि डॉक्टर भी चिन्तित हैं। जिस उम्र में बच्चों को सिर्फ पढ़ाई करनी होती है, उस दौरान इस तरह की गतिविधियों की कल्पना भी नहीं की जा सकती। कोटा में पिछले कुछ माह में ऎसी घटनाएं बढ़ी हैं। इस तरह के सामाजिक परिवर्तन से मनोचिकित्सक भी हैरान हैं। मनोचिकित्सकों के पास इस तरह के दो से तीन बच्चे औसतन हर सप्ताह उपचार के लिए पहुंच रहे हैं। इनमें बारह वर्ष तक के बच्चे भी शामिल हैं। लड़कों पर परिवार में कम नजर रखी जाती है, इसलिए उनके मामले कम सामने आते हैं। डॉक्टरों तक लड़कियों के मामले अधिक पहुंच रहे हैं।
ऎसे एक-दो बच्चे हर सप्ताह आ रहे हैं। उनके भेजे एसएमएस उनकी उम्र के अनुरूप नहीं होते। टीवी और फिल्मों का काफी असर है। बच्चों के कार्टून शो भी अब बच्चों की मानसिकता के अनुरूप नहीं हैं। उनमें काफी ऎसे दृश्य या सामग्री होती हैं, जिनका बाल मस्तिष्क पर बुरा असर पड़ता है। ये खतरनाक संकेत है।
-डॉ. भरतसिंह शेखावत, मनोचिकित्सक, एमबीएस अस्पताल
ऎसे चलता है पता
सामान्यत: ऎसे मामलों में बच्चे अपने माता-पिता का मोबाइल लेकर उसका उपयोग शुरू करते हैं। मोबाइल पर लंबी बात, मैसेज करना इत्यादि। मोबाइल का बिल अधिक आने पर परिजनों को इस तरह की गतिविधियों का पता चलता है। इसके बाद वे बच्चों से डांट-फटकार और अन्य तरीके इस्तेमाल करते हैं। बात नहीं बनती तो अनेक माता-पिता मनोचिकि त्सकों के पास ये कहकर पहुंचते हैं कि बच्चे का किसी ने "वशीकरण" कर दिया है। ऎसे मामले भी सामने आए, जिनमें बच्चे अपने दोस्त से रात भर फोन पर बात करते रहे या संदेश भेजते रहे।
शुक्रवार, 19 मार्च 2010
हर दूसरे दिन बिछुड़ी जिंदगी
कोटा। "रूक जाना नहीं तू कहीं हार के, कांटों पर चलकर मिलेंगे साए बहार के..." शायद ही कोई हो, जिसे जिंदगी का ये फलसफा पता न हो, इसके बावजूद जिंदगी की राह में कुछ कदम डगमगाते ही लोग हताश होकर बैठ जाते हैं। पिछले दिनों शहर में इसी तरह निराश होकर 36 लोगों ने अपनी जीवन डोर खुद काट ली। वर्ष 2010 के शुरूआती 75 दिनों में हर दूसरे दिन एक व्यक्ति ने आत्मघाती कदम उठाया। मनोचिकित्सक इसे समाज में बढ़ती नकारात्मक सोच का प्रतिबिंब मानते हैं। पिछले दिनों आत्महत्या करने वाले सर्वाधिक लोग 21 से 35 वर्ष की उम्र के युवा थे।
घटी सहनशीलता
मेडिकल ज्यूरिष्ट डॉ. पी.के. तिवारी के अनुसार, आज के दौर में सहनशीलता घटी है। इसका एक कारण यही है कि लोग छोटी-छोटी बातें दिल से लगा लेते हैं। बुजुर्गो की डांट-फटकार, शिक्षकों की रोक-टोक को भी अपमानजनक समझा जाने लगा है। मामूली बात पर लोग मरने-मारने पर उतारू हो जाते हैं। परिवारिक समस्या, आर्थिक कारण और कामकाज का तनाव भी निराशाजनक वातावरण बनाने में सहायक सिद्ध होता है।
महिलाएं अधिक सहनशील
महिलाएं पुरूषों की तुलना में अधिक सहनशील होती हैं। आत्महत्या करने वाले 36 लोगों में 26 पुरूष हैं। युवा वर्ग में धैर्य कम होता है, इसीलिए 16 से 20 वर्ष की आयु के आत्महत्या करने वाले 8 जनों में पचास फीसदी महिलाएं थी, जबकि 21 से 35 वर्ष के 19 लोगों में 33 फीसदी ही महिलाएं थी। 35 वर्ष से अधिक उम्र की महिलाएं अधिक सहनशील साबित हुई।
यूं काटी जिंदगी की डोर
आयुवर्ग कितने पुरूष महिला
16 से 20 08 04 04
21 से 35 19 06 13
35 से 50 06 06 00
51 से अधिक 03 03 00
परिजन ध्यान रखें
"परिवार के किसी सदस्य को निराश देखें तो उसे संबल दें। अधिकांश मामलों में परिवार के लोग समय रहते सकारात्मक व्यवहार करें तो कई लोगों को आत्महत्या करने से रोका जा सकता है। अधिकांश मामलों में लोग पढ़ाई के तनाव, प्रेम संबंध और बीमारी से तंग हो कर जान देते हैं।"-लक्ष्मण गौड़, अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक
समस्या है तो समाधान भी
जान देना किसी भी समस्या का समाधान नहीं हो सकता, बल्कि इससे तो समस्याएं बढ़ती हैं। कोई भी समस्या स्थायी नहीं होती। वक्त के साथ सब ठीक हो जाता है। समस्या है तो विचार करें, कोई ना कोई रास्ता अवश्य निकल आएगा। धैर्य नहीं खोएं। कई बार परिवारों में जिद भी इसका कारण बन जाती है।
परिवारों की आर्थिक समस्या और पढ़ाई में अपेक्षाएं पूरी नहीं होने पर परिजनों को बच्चों पर दबाव नहीं डालना चाहिए। दबाव में बच्चों की योग्यता प्रभावित होती है।-डॉ. डी.के. शर्मा, विभागाध्यक्ष, मनोचिकित्सा विभाग, मेडिकल कॉलेज
बुधवार, 17 मार्च 2010
कोन अधिक तकलीफ देह


इंसानी रिश्तों की संभावनाएं अनंत हैं और उनमें छिपी आशंकाएं भी। ये कई तरह से और कई रुपों में हमारे आसपास मौजूद रहती हैं। कई बार जानकारी में तो कई बार अनजाने में ही सही। कई रिश्ते ऐसे होते हैं जो उसे जीने वालों को तो खुशी देते हैं लेकिन उनसे जुड़े दूसरों को तकलीफ। बनते, बिगड़ते, टूटते और फिर बनते रिश्तों के बीच ज़िंदगी जारी रहती है।
इन दो तस्वीरों को मेरे एक दोस्त ने ईमेल के ज़रिए भेजा है। इस प्रतीकात्मक तस्वीरों को आप भी देखिए और बताईये कि इसमें ज़्यादा तकलीफ़देह कौन-सी होगी! या ये भी... कि दोनों ही तस्वीरें स्वाभाविक हैं...तकलीफदेह नहीं!
अमेरिका का नेशनल फ्लैग मेड इन चाईना...!
ऐसा शायद हम तिरंगे के साथ नहीं कर सकते। ये तिरंगे का अपमान माना जाएगा। ये अमेरिका में ही संभव है। इन तस्वीरों को ग़ौर से देखिए। ये अमेरिका का राष्ट्रीय ध्वज है। लेकिन बना कहां है? मेड इन चाईना! जी हां। ये तस्वीर 5 नवबंर की हैं। नई दिल्ली स्थित अमेरिकन इंफोर्मेशन सेंटर की जहां ओबामा की जीत का जश्न मनाया जा रहा था। पॉलीथीन के बने सैकड़ों झंडे लगाए गए थे। सब पर मेड इन चाईना का ऐसा ही मार्का लगा था। अपना राष्ट्रीय ध्वज चीन में बनवाने के पीछे की वजह साफ है। मानव श्रम की उपलब्धता से लेकर प्रदूषण निरोधी नीति तक... कई कारणों से अमेरिका जैसे विकसित देश को नहीं लगता कि ऐसे छोटे-छोटे कामों में अपना वक्त और ताक़त ख़र्च करें। सस्ता माल चीन से उठा लेते हैं। चाहे राष्ट्रीय ध्वज ही क्यों न हो!
मंगलवार, 16 मार्च 2010
सोमवार, 15 मार्च 2010
कम से कम इतना काम तो करना ही होगा.
कितने लायन मारे..सांभा
रविवार, 14 मार्च 2010
शुक्रवार, 12 मार्च 2010
आखिर क्यों बनू मैं लड़की
जीवन भर अपमान सहने के लिया या माँ बाप की इच्च्चाये पूरी करने की खातिर.
राजेश त्रिपाठी
कभी कभी पुरुषों को सोचना चाहिए कि एक स्त्री या लड़की उनके बारे में कैसी कल्पना करती होगी। पुरुषों के कल्पना लोक में लड़कियां आतीं रहती हैं। फिल्म के पर्दे से लेकर पड़ोस की खिड़की से। मैगज़ीन के कवर से लेकर रेलगाड़ी में सामने की सीट से। फिल्म और छपाई के ज़माने में लड़कियों के सौंदर्य की एक सार्वभौमिक अभिव्यक्ति बनाई गई। जिनकी पूर्ति के लिए कई लड़कियों ने मटके के पीछे खड़ी होकर शादी के लिए तस्वीरें खींचाईं। फोटो की फाइनल कॉपी से पहले स्टुडियो वाले ने प्रूफ की कॉपी बनाई। उसके बाद यह कॉपी न जाने कितने योग्य वरों के घरों में गई। नहीं मालूम कि योग्य वर ने इंकार करने के बाद उस लड़की के साथ अपने कल्पना लोक में क्या किया। नहीं मालूम की मटकी के पीछे और राजस्थानी घाघरा चोली में खड़ी लड़की की तस्वीर हाथ में आते ही लड़के की नज़र पहले कहां गई। इसका कोई सामाजिक शोध उपलब्ध नहीं है।
मेरे दोस्त के पिता जी ने एक योग्य वर के नखरे से तंग आकर खरी खोटी सुना दी थी। कोटा में किसी रिश्ते के अपने भाई की बेटी के लिए अगुवई में गए थे। लड़के वाले कैसी लड़की चाहिए पर वाम दलों की तरह सूची लंबी किए जा रहे थे। पिता जी की ज़ुबान फिसल गई या गुस्से में कह गए- पता नहीं। चिल्लाने लगे कि लड़का को हेमा मालिनी चाहिए तो लड़की को भी धर्मेंद्र जैसा हैंडसम लड़का मिलना चाहिए। आपका बेटा इंजीनियर ही तो है। शक्ल देखिये इसकी। पतलून में बेल्ट लगाने नहीं आता, बाल में तेल है और कमीज़ की कोई फिटिंग तक नहीं। और आप हमारी लड़की में गुण ढूंढ रहे हैं। शादी करेंगे या नहीं। पिताजी बोल तो गए मगर शादी नहीं हुई। लड़के वाले इस बात को स्वीकार नहीं कर सके कि योग्य वर के बारे में योग्य दुल्हन की भी कोई कल्पना होगी?
ऐसे कई प्रसंगों में मैं खुद भी मौजूद रहा हूं। जहां लड़के वालों ने लड़कियों को ड्राइंग रूम में चला कर देखा कि चलती कैसी हैं। कभी चश्में का नंबर पूछा गया तो कभी लड़के की बहन ने लड़की की आंख को घूर से देखा कि कहीं कांटेक्ट लेंस तो नहीं लगा है। यह प्रक्रिया शादी के बाद भी जारी रहती है जब शादी के बाद घर आई दुल्हन की मुंहदिखाई के लिए लोग आते हैं। घूंघट उठा कर देखते हैं और सौ दो सौ रुपया दे जाते हैं। मैंने कई औरतों को देखा है कि दुल्हन की घूंघट उठाई और बोलते रह गईं। किसी ने वहीं कह दिया कि फलां कि बहू जैसी खूबसूरत है। बस इस तुलना से दुल्हन की तौहिन हुई सो अलग, वहीं बवाल मच गया। खैर ऐसे आयोजन को अंग्रेजी में रिसेप्शन कहते हैं। हिंदी में प्रीतिभोज।
यही देखते हुए बड़ा हुआ था। कई बार रिश्तेदारों को पिछले दरवाज़े से जाते हुए देखा था। किसी को पता न चले कि लड़की दिखाने ले जा रहे हैं। बदनामी के डर से कि इनकी बेटी बार बार छंट जा रही है। इस खौफ से कई अनर्गल और अवांछित रिश्तेदारों का मान मनौव्वल करते रहते थे कि कहीं वे उन जगहों पर जाकर बेटी के बारे में शिकायत न कर दें। शादी न कट जाए। यही जुमला चलता था। नहीं बैठा मामला? रिश्तेदार कोई अनजाने नहीं बल्कि अपने ही मामा चाचा हुआ करते थे। हर दिखाई के बाद जब पड़ोस की चाची पूछती थीं तो पूरा परिवार तुरंत झूठ बोलने लगता था। अपनी बहनों की भलाई के लिए। कोई नहीं कहता कि लड़के वाले ने देखा है। कुछ लोग यही गिनते रहते थे कि कितनी बार छंटाई हुई है। हालत ये भी हो जाते है की कुछ रिश्तेदार कहने लगते है की जिन लडको ने तुम्हारी लड़की को रिजेक्ट किया हो उनके पते हमें दे दो. हम उनसे जा कर निवेदन कर लेंगे. बेटी का बाप होना जैसे कोई सजा है,जिस से भी मिलो हाथ जोड़ कर मिलो नीचे सुर में ही आवाज निकले
यही देखते देखते कुछ और बड़ा हुआ। इतना कि मेरी कल्पनाओं में लड़कियां आने लगी थीं। किस रूप में आती थी उस पर बहस फिर कभी। लेकिन कभी कोई लड़की गुज़र जाए तो बहनें या पड़ोस की चाचियां ही कह देती थी कि सुंदर है..राजेश की दुल्हन ऐसी ही होगी। लंबी, गोरी और काले बालों वाली। मैं भी सुन लेता था। कान बंद करने का कोई उपाय नहीं होता था। मगर अच्छा नहीं लगता था। क्योंकि दुल्हन देखने के रस्मों की कड़वाहट ज़हन में उतर गई थी।
कोटा स्टेशन के पास हनुमान मंदिर में पड़ोस की चाची की एक बेटी को स्कूटर पर बिठा कर ले गया था। मुझे यह काम इसलिए सौंपा गया कि किसी को शक न हो। मेरी ऐसी साख बन गई थी मोहल्ले की लड़कियों के बीच। लोगों को लगे कि कहीं कोचिंग सेंटर छोड़ने ले जा रहा होगा। मेरा एक काम यह भी था। इसलिए किसी को शक नहीं होता था। उस दिन मैं उस लड़की को हनुमान मंदिर ले गया था। चाची ने कह दिया था धीरे धीरे चलाना। शुभ काम है। मैं भी लगता था कि कितना बड़ा काम मिला है, कर ही देना है। हनुमान मंदिर। वहां लड़के वाले आ चुके थे। उसे देखने। चाची रिक्शे से पहुंची थीं। अलग से। लड़के ने लड़की को देखना शुरू किया। उसकी नज़रों को मैंने देखना शुरू कर दिया। वो कहां कहां देख रहा है। कहां ज्यादा रूक रहा है।मोहल्ले के फिल्मी भाई की तरह गुस्सा भी आया।लेकिन भला उसी का था, चाची के सर से बोझ उतरना था इसलिए चुप भी रहना था। वो मेरी बहन नहीं थी इसलिए सर उठा कर देख रहा था।अपनी बहनों के वक्त तो नज़र नीचे ही रहती थी। इसी से कई लोगों को लगा कि मैं सीधा हूं।अच्छा लड़का हूं।खैर पहली बार देखा कि मर्द कैसे लड़की को देखता है।साला सामान ही समझता है।और कुछ नहीं।बाद में
उस लड़की को स्कूटर के पीछे बिठा कर घर ला रहा था।रास्ते भर सोचता रहा कि कितना अपमान है।लड़की नहीं होना चाहिए। पहली बार मुझे यह पता चला था कि लड़कों की नज़रें गंदी हो सकती हैं। बुरा या गंदी पता नहीं। अच्छाई के विरोध में तब शब्द भी कम होते थे। उस लड़के ने पसंद नहीं किया। क्या पता किसी और को हनुमान के सामने घूर रहा होगा? पता नहीं।
हिंदुस्तान के लड़के बदसूरत, बेढंग और बेहूदे होते हैं। लड़कियां तो सज कर कुछ बेहतर से बहुत बेहतर लगती रहती हैं। लड़कों के पास नौकरी न हो और समाज में शादी का चलन न हो तो मेरा यकीन है कि लाखों की संख्या में लड़के कुंवारे रह जाते। शाहरूख ख़ान सिक्स पैक बना रहा है तो मुझे ठीक लगता है। सारे लड़कों को नौकरी के अलावा इस लायक तो होना ही चाहिए कि किसी लड़की की कल्पना लोक में आ सके। वर्ना मैंने शादी से पहले सैंकड़ों मौके देखे हैं जब लड़कियों को लड़कों के सामने दिखाया गया है। एक भी मौके पर किसी भी लड़की ने लड़के की तरफ नज़र उठा कर नहीं देखा। कभी नहीं देखा कि लड़के ने भी लड़की के लिए तस्वीर खिंचाई है। सूट में। स्टुडियो वाले से टाई लेकर। यकीन न हो तो कोटा के सिद्धू स्टुडियो जाकर पूछ लीजिएगा। यह स्टुडियो स्थानीय स्तर पर लड़कियों की ऐसी तस्वीर तो बना ही देता था कि पहले राउंड में क्लियर हो जाए। और लड़के वाले अपने ड्राइंग रूम में या हनुमान मंदिर में उसे देखने के लिए बुला लें। लड़कियों के सामने लड़कों की तस्वीरों का विकल्प कभी नहीं रहा। क्या पता उन्हें भी लगता हो इंजीनियर ही तो है। जीवन काटना है। हां कह देंगे तो मां बाप है हीं मेरी तरफ से हां कहने के लिए।
मुझे फैशन से चिढ़ है। मेक अप से चिढ़ है। लेकिन जब पढ़ता हूं कि पुरुषों के सजने संवरने का कारोबार हज़ार करोड़ का हो रहा हो तो कभी कभी खुशी होती है। बीते दिनों की ख़राशों पर इसी बात से मरहम लगती होगी। जब मेरी एक दोस्त ने कहा कि शाहरूख इज़ हॉट तो सुनकर अच्छा लगा। एक बार लड़कियों की नज़रे लड़कों को नापने लगे तो कस्बे से लेकर महानगरों के कुंवारे इंजीनियरों, डाक्टरों और एमबीए लड़कों के होश उड़ने लगेंगे। वो भी सिक्स पैक बनाने लगेंगे। बल्कि बना ही रहे हैं।
गुरुवार, 11 मार्च 2010
खोया खोया चांद
बालीवुड का एक गाना बहुत दिनों से कान में बज रहा है। मैंने पूछा चांद से कि देखा है कहीं..मेरे प्यार सा हसीं..चांद ने कहा नहीं..नहीं। यानी चांद गवाह भी है। वो सभी प्रेमियों को देख रहा है। तुलना कर रहा है कि किसकी महबूबा अच्छी है। और किसकी सबसे अच्छी। पता नहीं इस प्रेम प्रसंग में चांद मामा कैसे बन जाता है। जब इनके बच्चे यह गाने लगते हैं कि चंदा मामा से प्यारा...मेरा...। क्या चांद महबूबा का भाई है? क्या प्रेमी महबूबा के भाई से हाल-ए-दिल कहते हैं? पता नहीं लेकिन चांद का भाव स्थायी है। अनंत है।
सूरज में कितनी ऊर्जा है। मगर वो प्रेम का प्रतीक नहीं है। क्या प्रेम में ऊर्जा नहीं चाहिए? चांदनी की शीतलता प्रेम को किस मुकाम पर ले जाती है? तमाम कवियों ने चांद को ही लेकर क्यों लिखा? कुछ गीतकारों ने जाड़े की धूप में प्रेम को बेहतर माना है लेकिन सूरज से रिश्ता जोड़ना भूल गए। धूप के साथ छांव का भी ज़िक्र कर देते हैं। यानी प्रेम में सूरज अस्थायी है। चांदनी का कोई विकल्प नहीं। कई कवियों की कल्पना में प्रेमी चांदनी रात में नहाने भी लगते हैं। पानी से नहीं, चांदनी से। अजीब है चांद।हद तो तब हो जाती है जब प्रेमी चांद से ही नाराज़ हो जाते हैं कि वह खोया खोया क्यों हैं? क्यों नहीं उनकी तरफ देख रहा है? प्रेमी अपने एकांत में चांद को भी स्थायी मान लेते हैं। चांद है तभी एकांत है। चांद पर इतना भरोसा कैसे बना, कृपया मुझे बताइये। कोई शोध कीजिए। कोई किताब लाइये। मुझे चांद चाहिए।
प्रणाम सर
सर क्या है? नाम के बाद आने वाला एक ऐसा सामंती उपकरण जो आपको कई लोगों से अलग करता है। इंसान सर संबोधन से इतना प्रभावित क्यों हैं? जब तक इसका इस्तमाल नहीं करता, उसे लगता ही नहीं कि सामने वाले को इज्जत बख्शी है। क्या सर के बिना सम्मान का कांसेप्ट नहीं होता है? करें क्या? मैं इनदिनों बहुत परेशान हूं। अब सुन कर उल्टी होती है। कहने वाले को समझाता हूं मगर मानते ही नहीं। सर और जी से बड़ा सरदर्द कुछ नहीं होता। मुझे यह समझ नहीं आ रहा है जो लोग साथ काम करते थे वो भी सर लगा देते हैं। मज़ाक की भी हद होती है। कई बार जब कहने को कुछ भी नहीं होता तब भी सर लगा देते हैं। कैसे हैं सर? क्या सर के बिना कैसे हैं का वाक्य पूरा नहीं होता? जिस तरह मुंबई में बीएमसी ने थूकने पर फाइन लगा दिया है उसी तरह दफ्तरों में सर संबोधन पर फाइन की व्यवस्था होनी चाहिए? क्या आप भी सर संबोधन से परेशान है? क्या आप इस परेशानी को दूर करने वाले किसी हकीम को जानते हैं? मैं उसकी पुड़िया सर संबोधन कार्यकर्ताओं को खिलाना चाहता हूं। ताकि यह मर्ज जड़ से गायब हो जाए।
ब्लॉग साहित्य
रविवार, 7 मार्च 2010
यहाँ भी है भेंस पानी और बचपन
गर एक दोस्त मिल जाये तेरे जैसा.
आखिर क्यों बने मूर्ति रक्षा दल जब ऐसे अनुयाई हो.

शुक्रवार, 5 मार्च 2010
अब दलित नाम की माया
शुरू में तो ये भोजन विश्राम यात्रा ठीक लगी लेकिन अब यह दलितों को जानने के अलावा नौटंकी लगने लगी है। इसलिए नहीं कि ठाकुर राजनाथ सिंह भी खाने लगे हैं बल्कि इसलिए कि हो क्या रहा है। राजनाथ सिंह कब से दलितों के बारे में बात करने लगे। एक तरफ वो दलितों के घर खाना खाते हैं और दूसरी तरफ कहते हैं कॉमनवेल्थ गेम्स में बीफ मत परोसो। उन्हें खाने के संस्कारों की विविधता के बारे में कुछ नहीं मालूम। वो धर्म और जाति की राजनीति का कॉकटेल अब तो न बनायें। चार साल तक बीजेपी के अध्यक्ष रहते हुए तो कुछ किया नहीं। अब फोटोकॉपी पोलिटिक्स कर रहे हैं।
लेकिन क्या यह ठोस उपाय है? सारे गांवों की बसावट जात के आधार पर है। बहुत पहले मैंने इस ब्लॉग पर लिखा भी था कि गांवों की पारंपरिक बसावट को ध्वस्त कर दिया जाए और एक नया मास्टर प्लान बने। गांवों में इस तरह से घरों को बसाया जाए ताकि एक घर पंडित का हो और दूसरा दलित का, उसका पड़ोसी ठाकुर का। वैसे भी सरकार इंदिरा आवास योजना के तहत गरीबों के लिए घर बनवाती ही है। कई सरकारी योजनाएं हैं जिनके तहत गांवों में गरीबों के लिए घर बनते हैं। इन घरों को गांव के किसी छोर पर न बनाया जाए। आज भी इंदिरा आवास के घर दलितों की बस्ती में ही बनते हैं। ये चलन तुरंत बंद होना चाहिए। इंदिरा आवास के तहत सभी जाति के गरीबों को घर मिले। जब तक हम बसावट में मिलावट नहीं करेंगे, दलितों को जानने के लिए उनकी बस्तियों में जाते ही रह जाएंगे। अलग से जाकर नौटंकी करने की ज़रूरत न पड़े इसलिए गांवों की बसावट को ध्वस्त करने की योजना पर काम करना चाहिए। बवाल होगा तो होगा। ठाकुर साहब का घर एक छोर पर और जाटव जी का एक छोर पर नहीं चलेगा।
लेबल असली, दवा नकली
कोटा। अस्पतालों में बीमारियों से जूझ रहे गंभीर रोगियों को "जिंदगी" देने वाली दवा भी उनकी जिंदगी को "खतरा" पैदा कर सकती है। गत वर्ष कोटा में जब्त हुई एंटीबायोटिक दवा जांच में "नकली" साबित हुई। संभवत: कोटा में अब तक का ये पहला मामला है। जिंदगी के दुश्मन "असली" की आड़ में "नकली" दवा बेचकर "चांदी" कूट रहे हैं। हो सकता है कि अभी भी ये नकली दवाएं बाजार में धड़ल्ले से बिक रही हों! हुआ यूं कि औषधि नियंत्रण विभाग की ओर से गत वर्ष एमबीएस अस्पताल में जब्त एंटीबायोटिक दवा हाल ही आई जांच रिपोर्ट के अनुसार सरकारी प्रयोगशाला में "नकली" निकली है। दरअसल जो दवा लिखी गई थी, उसी का लेबल शीशी पर लगा था, लेकिन शीशी के अंदर कोई और दवा निकली। औषधि नियंत्रण विभाग ने कार्रवाई के लिए जयपुर के औषधि नियंत्रक से अनुमति मांगी है। रिपोर्ट आने के बाद दवा विक्रेताओं में भी हड़कम्प मचा हुआ है।
ये था मामला
अस्पताल के ईएनटी वार्ड में बारां जिले के नारायणपुरा गांव निवासी सत्यनारायण पांचाल का कान का ऑपरेशन हुआ था। ऑपरेशन से पूर्व 31 जुलाई 2009 को विभागाध्यक्ष के निर्देश पर कंपाउण्डर द्वारा लिखी दवाइयां परिजनों ने नयापुरा स्थित आदित्य मेडिकल स्टोर से खरीदी। दवाओं में ब्रांडेड इंजेक्शन "आईक्यू जिड" भी था। एक अगस्त को ऑपरेशन के बाद वार्ड नर्स ने नकली होने की आशंका जताते हुए इंजेक्शन लगाने से इनकार कर दिया। बाद में औषधि निरीक्षक ने जांच के लिए दवा का सैंपल लिया था।
ये थी गड़बड़ी
दवा की शीशी के लेबल के अनुसार दवा में सेप्टीजाइडिम साल्ट होना चाहिए था, लेकिन जांच में सेप्ट्रामऑक्सिन साल्ट पाया गया। दोनों एंटीबायोटिक हैं, लेकिन गुणवत्ता में काफी अंतर है। जांच में ऎसा माना गया कि दवा कंपनी में नहीं बनी। सारा हेरफेर कोटा में ही किया गया।
कूट रहे चांदी
नकली दवाओं के इस खेल में दवा विक्रेताओं व अन्य लोगों की मिलीभगत से इनकार नहीं किया जा सकता। लोगों के स्वास्थ्य से खिलवाड़ करते हुए ये लोग "चांदी" कूटने में लगे हुए हैं। सेप्टीजाइडिम की वायल 290 रूपए की आती है और सेप्ट्रामऑक्सिन की वायल 30 रूपए की। यानि रोगी को 30 रूपए की दवा 290 रूपए में बेच दी जाती है। कई बार इन दवाइयों से रोगी को गंभीर नुकसान भी हो जाता है, लेकिन इसकी परवाह किसे है।
कब-कब आए नकली दवा के मामले
* 2007 में पुलिस ने शिवपुरा के एक मकान से नकली के संदेह में दवाएं जब्त की। मामले में पुलिस ने बाद में रूचि नहीं ली।
* 22 जुलाई 2009 में एंटीबायोटिक दवा के नकली होने के संदेह में एमबीएस अस्पताल में हंगामा।
* 2 अगस्त 2009 एमबीएस के ईएनटी वार्ड से नकली होने के संदेह में दवा जब्त की।
* औषधि नियंत्रण विभाग ने अभियान चला कर जनवरी में कोटा संभाग में 15 दवाओं के सैंपल लिए।
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यह दवा नयापुरा स्थित आदित्य मेडिकल स्टोर से खरीदी गई थी, जो जांच में नकली पाई गई। दुकान के संचालक उपेन्द्र पारेता के खिलाफ अदालत में चालान पेश करने की औषधि नियंत्रण कार्यालय से अनुमति शीघ्र मिलने की आशा है।-देवेन्द्र गर्ग, औषध निरिक्षका
बुधवार, 3 मार्च 2010
थ्री इटियॉटिक
शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2010
शब्दकोश में जुड़े ताज़ा शब्द
छोटा पत्रकार बड़ा पत्रकार
एक है बड़ा पत्रकार. चेहरे पर कुलीनता. मोटी तनख्वाहों से पेट और गाल फूलते हुए. कभी कुर्ता पहने तो चंपू बोले वाह सर क्या फैशन है. चार पांच चंपू आगे-पीछे घूमते हुए.
ख़बर भी इन दोनों के अंतर को समझती है. इसलिए छोटा पत्रकार ख़बर के पीछे भागता है. ख़बर बड़े पत्रकार के पीछे भागती है.
बड़ा पत्रकार ख़बर बनाता भी है. छोटा पत्रकार बड़े पत्रकार पर ख़बर लिखकर खुद को धन्य महसूस करता है. बड़े पत्रकार का पार्टियों में जाना, मैय्यत में जाना, नए ढंग से बाल कटवाना सब ख़बर है.
बड़ा पत्रकार पैदा होता है. छोटा पत्रकार छोटी जगह से आकर बड़ा बनने की कोशिश करता है.
बड़े पत्रकार के मुंह में चांदी की चम्मच होती है. वो बड़े स्कूलों में पढ़ने जाता है. शुरू से उसकी ज़बान अंग्रेजी बोलती है. हिंदी में वो सिर्फ़ अपनी कामवाली बाइयों और ड्राइवर से ही बात कर पाता है.
छोटा पत्रकार टाटपट्टियों पर बैठकर पढ़ाई करता है. मास्टरजी की बेंत उसके हाथों को लाल करती है. बारहवीं कक्षा तक फ़ादअ को फ़ादर और विंड को वाइंड कहता है. गुड मॉर्निंग कहने में ही उसके चेहरा शर्म से लाल हो जाता है.
नौकरियां छोटे पत्रकार को दुत्कारती हैं. बड़े पत्रकार को बुलाती हैं. नेता भी बड़े पत्रकार को पूछते हैं. छोटे से पूछते हैं तेरी औकात क्या है.
लेकिन छोटा कभी कभी बड़े काम करने की कोशिश भी करता है. कभी-कभी कर भी जाता है. लेकिन जब बड़ी ख़बर लेकर बड़े पत्रकार के पास जाता है तो बड़े पत्रकार को उसके इरादों पर शक होने लगता है.
कही ये अपनी औकात से बाहर तो नहीं निकल रहा. कहीं ये मेरी जगह लेने की कोशिश तो नहीं कर रहा. अबे ओ हरामी छोटे पत्रकार. अपनी औकात में रह. ये ख़बर अख़बार में नहीं जाएगी.
बड़ा पत्रकार कई बार छोटे को ख़बर का मतलब भी समझाने लगता है. देख छोटे. आज कल न ये समाजसेवी ख़बरों का ज़माना नहीं रहा. भ्रष्टाचार का खुलासा करेगा. अरे वो तो हर जगह है. आज के ज़माने में नई तरह की ख़बरें चलती हैं.
देख छोटे. टीवी चैनल्स को देख. वहां क्या नहीं बिक रहा है. खली चल रहा है. राखी सावंत के लटके-झटके चल रहे हैं. तू इन सबके बीच ये ख़बर कहां से ले आया रे.
लेकिन हुजूर हमें तो यही सिखाया गया. अबे चुप ईडियट. क्या पोंगा पंडितों की बात करता है. देख तेरी इच्छा यही है न कि तू भी बड़ा पत्रकार बने. बड़ी गाड़ी में घूमे. मोटी तनख्वाह पाए. इसलिए जो तूझे सिखाया गया उसको भूल जा. अब जैसा मैं करता हूं वैसा कर तो बड़ा पत्रकार बन जाएगा.
अबे तेरी औकात क्या है छोटे. कहता है बीस साल हो गए पत्रकारिता में. क्या मिला. अरे मिलेगा क्या. बाबाजी का घंटा. हमें देख. दस साल में कहां से कहां पहुंच गए.
छोटा और छोटा हो जाता है. लटका चेहरा लटक कर पैर तक पहुंचता है. घर पहुंचता है तो बीवी की मुस्कान उसे चुड़ैल के अट्टहास की तरह लगती है. कल तक जिस बेटे को सिर आँखों पर रखा उसे लात मार कर बोलता है अबे ओ छोटे की औलाद. तू ज़िंदगी भर छोटे की औलाद ही रहेगा.
गुरुवार, 25 फ़रवरी 2010
बुधवार, 24 फ़रवरी 2010
फिल्मों में दारोगा का प्रमोशन हो गया है।
तूफान.....ने दिया संपादको को सर खुजाने का मौक़ा

रन जीतेगा रिपोर्टर
मंगलवार, 23 फ़रवरी 2010
सदी का महा नालायक.....अमिताभ

महत्वाकांक्षा में "गुम" बच्चे
राजेश त्रिपाठी
कोटाशहर में लापता होने वाले छात्रों की कहानी पर यकीन करें तो कोटा के अपराध का चेहरा कुछ ओर नजर आता है। ज्यादातर लापता छात्र खुद अपने अपहरण की कहानी बताते हैं, जिससे परिजन बेहाल होते हैं तो पुलिस चकरघिन्नी। दरअसल कोटा आने वाले कई छात्र परिजनों की महत्वाकांक्षा की भेंट चढ़ रहे हैं। ऎसे छात्र पढ़ने में कमजोर होते हैं और सालभर बचने के रास्ते तलाशते हैं। जब उन्हें कुछ नहीं सूझता तो वे "लापता" हो जाते हैं। हर साल तकरीबन दो दर्जन से अधिक छात्रों के ऎसे मामले सामने आते हैं।चिकित्सकों का मानना है कि परिजनों की कसौटी पर खरे नहीं उतरने का डर छात्रों से इस तरह की घटनाएं करवाता है। उन्हें पसंद के कॅरियर में भेजा जाए तो वे वहां कुछ अच्छा कर सकते हैं। ऎसे दो दर्जन से अधिक छात्र मनोचिकित्सकों से उपचार करवा रहे हैं। बड़ी संख्या में छात्र घरों में तनाव भुगत रहे हैं। उधर, विज्ञाननगर थानाधिकारी संजय शर्मा के मुताबिक ऎसे किसी भी मामले में पुलिस सबसे पहले छात्र के अध्ययन का रिकॉर्ड तलाशती है। बीमारी भी बहानापरीक्षा से पहले अत्यधिक तनावग्रस्त के चलते कई बच्चों को अजीब बीमारियां होने लगती हैं। कुछ छात्र धुंधला दिखने की शिकायत करते हैं, तो कुछ हाथ-पैर सुन्न होने समेत अन्य लक्षण बताने लगते हैं। चिकित्सक इसे "कन्वर्जन डिसआर्डर" कहते हैं। परीक्षाएं समाप्त होने पर सब सामान्य हो जाता है।यह सोच-समझ कर किया जाता है। पढ़ाई में कमजोर छात्र अक्सर सोचते हैं कि वे अपनी कमजोरी को जाहिर करेंगे तो लोग उनका मजाक बनाएंगे। परिणाम अच्छे नहीं आए तो परिजनों का दबाव बढ़ेगा। ऎसे में उन्हें घर से भागना ही एक मात्र रास्ता दिखता है।-डॉ. भरतसिंह शेखावत, मनोचिकित्सककेस- एकपिछले दिनों कोटा के महावीर नगर इलाके से लापता एक छात्र ने दिल्ली में अपने दोस्त के घर से एसएमएस कर खुद के अपहरण की बात कही और परिजनों से एक करोड़ रूपए की फिरौती मांगी।केस- दोदो वर्ष पहले तलवंडी से लापता एक छात्र ने जम्मू रेलवे स्टेशन से फोन पर परिजनों को बताया कि उसे आतंककारी अगवा कर ले गए। वह किसी तरह उनकी गिरफ्त से छूट कर भागा।