गुरुवार, 11 मार्च 2010

प्रणाम सर

कई लोगों ने सर सर कह कर मुझे पका दिया है। अचानक सर संबोधन में आई वृद्धि से परेशान हो गया हूं। पहले जब लोगों ने जी संबोधन का इस्तमाल किया तो तनिक विरोध के बाद छोड़ दिया। लगा कि जी से उम्र ही अधिक लगती है वर्ना समस्या खास नहीं है। सर ने सर खपा दिया है। कई लोग अब जी की जगह सर लगाने लगे हैं। ऐसा भी नहीं कि मैं कोई बड़ा अफसर हो गया हूं। होता भी तो इसकी ख्वाहिश तो बिल्कुल ही नहीं है।

सर क्या है? नाम के बाद आने वाला एक ऐसा सामंती उपकरण जो आपको कई लोगों से अलग करता है। इंसान सर संबोधन से इतना प्रभावित क्यों हैं? जब तक इसका इस्तमाल नहीं करता, उसे लगता ही नहीं कि सामने वाले को इज्जत बख्शी है। क्या सर के बिना सम्मान का कांसेप्ट नहीं होता है? करें क्या? मैं इनदिनों बहुत परेशान हूं। अब सुन कर उल्टी होती है। कहने वाले को समझाता हूं मगर मानते ही नहीं। सर और जी से बड़ा सरदर्द कुछ नहीं होता। मुझे यह समझ नहीं आ रहा है जो लोग साथ काम करते थे वो भी सर लगा देते हैं। मज़ाक की भी हद होती है। कई बार जब कहने को कुछ भी नहीं होता तब भी सर लगा देते हैं। कैसे हैं सर? क्या सर के बिना कैसे हैं का वाक्य पूरा नहीं होता? जिस तरह मुंबई में बीएमसी ने थूकने पर फाइन लगा दिया है उसी तरह दफ्तरों में सर संबोधन पर फाइन की व्यवस्था होनी चाहिए? क्या आप भी सर संबोधन से परेशान है? क्या आप इस परेशानी को दूर करने वाले किसी हकीम को जानते हैं? मैं उसकी पुड़िया सर संबोधन कार्यकर्ताओं को खिलाना चाहता हूं। ताकि यह मर्ज जड़ से गायब हो जाए।

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