रविवार, 7 मार्च 2010

गर एक दोस्त मिल जाये तेरे जैसा.

हरियाणा की रुचिका गिरहोत्रा मामले का राज़ आज सबको पता नहीं होता अगर अराधना उसकी दोस्त न होती। उन्नीस साल तक अराधना अपनी दोस्त रुचिका के इंसाफ के लिए लड़ती रही। इस दौरान उसने अपनी दोस्त को भी खो दिया। एस पी एस राठौर पुलिस की ताकत का इस्तमाल करता रहा लेकिन अराधना हार नहीं मानी। अमन के साथ शादी के बाद अराधना का मुल्क बदल गया। वो आस्ट्रेलिया और सिंगापुर रहने लगी। इसके बाद भी अराधना अपनी बचपन की दोस्त रुचिका के साथ हुई नाइंसाफी को नहीं भूली। उसके इंसाफ के लिए लड़ती रही। चौदह-पंद्रह साल की उम्र की यह दोस्ती। हम सब इस उम्र में दोस्तों को ढूंढते हैं। घर से बाहर निकलने की बेकरारी होती है। किसी और से जुड़ कर दुनिया और खुद को समझने की तड़प। उम्र के इस पड़ाव पर लगता है कि अगर दोस्त पक्का है तो जीवन में बहुत कुछ अच्छा है। हम सब के जीवन में इस उम्र के आस-पास बहुत सारे दोस्त बनते हैं और बदलते हैं क्योंकि सब एक दूसरे में सच्चा दोस्त ढूंढते हैं। रुचिका ने अराधना में जो दोस्त ढूंढा, उसे अराधना ने साबित कर दिया। अपने मां-बाप से इस मामले को अदालत तक ले जाने की दरख्वास्त की। अराधना के पति ने बताया कि वो अपनी कंपनी से बहाने बनाकर ऑस्ट्रेलिया से चंडीगढ़ आते थे, ताकि मुकदमें की सुनवाई के वक्त मौजूद रहे। अराधना के जज़्बे को अमन ने भी समझा। अमन ने कभी अराधना को अकेले नहीं आने दिया। राठौड़ कुछ भी कर सकता था। यह पूरा मामला आज पूरी दुनिया के सामने है क्योंकि इसमें एक सच्चे दोस्त और अच्छे जीवनसाथी की बहुत ही सक्रिय भूमिका रही है।यही मौका है एक बार फिर से समझने के लिए कि आम हिंदुस्तानी घरों में लड़कों से संस्कार की उम्मीद कम सफलता की ही आशा ज़्यादा की जाती है। उसे नहीं सिखाया जाता कि लड़कियों को किस नज़र से देखना है। सारी तालीम लड़कियों को दी जाती है कि लड़कों की नज़र से कैसे बचें। अगर लड़के को बचपन से ही यह सीखाया जाए कि लड़कियों के साथ सामान्य बर्ताव कैसे करें तो बड़े होने पर या सत्ता हासिल होने पर राठौर जैसे हिंसक और वहशी तत्व उसके भीतर पनप नहीं सकेंगे। अपने दोस्तों के बीच इस मुद्दे को लेकर खुल कर बात करनी चाहिए। कब तक हमारे शहरों में लड़के छेड़खानी करने के लाइसेंस लिये घूमते रहेंगे। सोच कर डर लगता है कि राठौर के इस अपराध में कितने पुलिस वालों ने साथ दिया। राठौर की वकील पत्नी ने भी साथ दिया। वो लोग कैसे आज अपनी बेटियों का सामना कर रहे होंगे जिन्होंने राठौड़ की मदद की और रुचिका के पिता सुभाष गिरहोत्रा और उसके भाई को तड़पाया। रुचिका की कहानी सामाजिक रिश्तों के दरकने और दोस्ती के बचे रह जाने की कहानी है। दोस्तों की कीमत समझने की कोशिश कीजिए। ये रिश्ता सिर्फ हंसी मज़ाक का नहीं है बल्कि उस बुरे दौर का भी बंधन है जब सारे लोग आपके खिलाफ हो जाते हैं। इसीलिए किशोरों पर दोस्तों का प्रभाव बहुत ज़्यादा होता है। अराधना ने एक बार फिर से इस दोस्ती को गौरवान्वित किया है।फेसबुक में सैंकड़ों अनजाने लोगों से कनेक्ट होने से तो अच्छा है कि एक अराधना मिल जाए। वो कोई राहुल भी हो सकता है। इस उम्र में हम भी अपने दोस्तों की चीज़ों को अपना समझते थे। किसी की कमीज़ पहन लेते थे तो किसी को अपना जूता दे देते थे। साझा करने का आनंद दोस्त की तलाश पूरी करता है। अब लगता है कि दोस्तों के बीच भावनात्मक संबंध कमज़ोर पड़ रहे हैं। दफ्तरों की गलाकाट प्रतियोगिता दोस्तों को प्रतियोगी बना रही है। पुराने दोस्त या तो कहीं छूट गए या फिर भूल गए। दोस्ताना,याराना,दोस्ती, दिल चाहता है जैसी फिल्मों को देखकर लगता रहा कि काश ऐसी दोस्ती हमारे हिस्से भी होती। पुरानी फिल्मों में दोस्त का किरदार एकदम भावुक होता था। उससे उम्मीदें होती थीं। उसकी बेरुखी दिल तोड़ देती थी। संगम फिल्म का गाना दोस्त दोस्त न रहा और दोस्ताना का गाना-मेरे दोस्त किस्सा ये क्या हो गया सुना है कि तू बेवफा हो गया,याराना का गाना- तेरे जैसा यार कहां...कहां ऐसा याराना,ऐसे गाने पीढ़ियों तक दोस्ती की छवि गढ़ते रहे। आजकल की फिल्मों के दोस्त मौज मस्ती के होते हैं। प्रैक्टिकल होते हैं। इसीलिए दिल चाहता है दोस्ती के संबंधों को आज के संदर्भ में देखने वाली आखिरी फिल्म थी। वैसे तो बाद में न्यूयार्क और दोस्ताना भी आई। लेकिन अराधना का असली किस्सा अब दोस्ती के किस्सों का सबसे बड़ा किरदार बन गया है। अपने आप से पूछिये क्या आपके पास अराधना जैसी दोस्त है।

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