शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2010

शब्दकोश में जुड़े ताज़ा शब्द

ये मेरे शब्दकोश में जुड़े ताज़ा शब्द हैं. इनका मतलब सीधा-सीधा समझाना मुश्किल है. लेकिन मुझे ये शब्द बताने वाले बिहार से केंद्रीय मंत्री रघुवंश प्रसाद सिंह कुछ-कुछ समझा पाते हैं.उनका कहना है कि खड़ी हिंदी में इनका कोई पर्यायवाची नहीं है. ये एक तरह से चुटकी लेने का ढंग है. मिसाल के तौर पर श्रीमान क लटपटिया हैं. इसका मतलब ये है कि क पर विश्वास नहीं किया जा सकता. वो कभी कुछ कहते हैं तो कभी कुछ और.बकलौल का अर्थ मैं नहीं समझ पाया. अगर आपमें से कोई जानता हो तो बता दे.मैं जहां से आता हूं. मध्य प्रदेश के मालवा से वहां हमारे स्थानीय स्लैंग होते रहे हैं. ज़्यादा तो अब याद नहीं. लेकिन उन्हें सुनने में बेहद रस आता रहा.इंदौर में मुंबई का बेहद प्रभाव है. ये वहां की भाषा में भी दिखाई देता है. जैसे कल्टी होना. यानी के पी के. खाओ पिओ और खिसको.चिरकुट शब्द की उत्पत्ति पर शोध किया जा सकता है. इसका इस्तेमाल हम कॉलेज में बढ़ते वक्त भी करते रहे. दिल्ली आकर भी ये उपाधि प्रचलन में देखी. एक बार समाजवादी पार्टी के महासचिव अमर सिंह के मुंह से सुना तो अच्छा लगा. वो इस उपाधि से किसी को महिमामंडित कर रहे थे.जुगाड़ तो अब भारतीय संस्कृति में रच बस गया है. वैसे ये मुख्य रूप से उत्तर भारत का शब्द है. लेकिन अब ये मान लिया गया है कि भारतीय जुगा़ड़ू होते हैं.मुगालता. ऐसा ही एक मशहूर शब्द है. कॉलेज में हम कहते थे कुत्ता पालो, बिल्ली पालो मगर मुगालता मत पालो. दिल्ली आकर भी इसे करीब-करीब ऐसे ही रूप में सुनने को मिला.ऐसे ही कुछ और शब्दों पर आपका ध्यान जाए तो बताना न भूलें.

छोटा पत्रकार बड़ा पत्रकार

समाज के इन दो वर्गों को कवर करते हुए पत्रकार भी दो श्रेणियों में बंटे हुए हैं. एक है छोटा पत्रकार. बेचारा. चेहरे पर दीन-हीन भाव, पिचके गाल और पेट, कभी कुर्ता तो कभी कंधे पर बैग लटकाए. दुम हिलाते आगे-पीछे घूमते हुए.
एक है बड़ा पत्रकार. चेहरे पर कुलीनता. मोटी तनख्वाहों से पेट और गाल फूलते हुए. कभी कुर्ता पहने तो चंपू बोले वाह सर क्या फैशन है. चार पांच चंपू आगे-पीछे घूमते हुए.
ख़बर भी इन दोनों के अंतर को समझती है. इसलिए छोटा पत्रकार ख़बर के पीछे भागता है. ख़बर बड़े पत्रकार के पीछे भागती है.
बड़ा पत्रकार ख़बर बनाता भी है. छोटा पत्रकार बड़े पत्रकार पर ख़बर लिखकर खुद को धन्य महसूस करता है. बड़े पत्रकार का पार्टियों में जाना, मैय्यत में जाना, नए ढंग से बाल कटवाना सब ख़बर है.
बड़ा पत्रकार पैदा होता है. छोटा पत्रकार छोटी जगह से आकर बड़ा बनने की कोशिश करता है.
बड़े पत्रकार के मुंह में चांदी की चम्मच होती है. वो बड़े स्कूलों में पढ़ने जाता है. शुरू से उसकी ज़बान अंग्रेजी बोलती है. हिंदी में वो सिर्फ़ अपनी कामवाली बाइयों और ड्राइवर से ही बात कर पाता है.
छोटा पत्रकार टाटपट्टियों पर बैठकर पढ़ाई करता है. मास्टरजी की बेंत उसके हाथों को लाल करती है. बारहवीं कक्षा तक फ़ादअ को फ़ादर और विंड को वाइंड कहता है. गुड मॉर्निंग कहने में ही उसके चेहरा शर्म से लाल हो जाता है.
नौकरियां छोटे पत्रकार को दुत्कारती हैं. बड़े पत्रकार को बुलाती हैं. नेता भी बड़े पत्रकार को पूछते हैं. छोटे से पूछते हैं तेरी औकात क्या है.
लेकिन छोटा कभी कभी बड़े काम करने की कोशिश भी करता है. कभी-कभी कर भी जाता है. लेकिन जब बड़ी ख़बर लेकर बड़े पत्रकार के पास जाता है तो बड़े पत्रकार को उसके इरादों पर शक होने लगता है.
कही ये अपनी औकात से बाहर तो नहीं निकल रहा. कहीं ये मेरी जगह लेने की कोशिश तो नहीं कर रहा. अबे ओ हरामी छोटे पत्रकार. अपनी औकात में रह. ये ख़बर अख़बार में नहीं जाएगी.
बड़ा पत्रकार कई बार छोटे को ख़बर का मतलब भी समझाने लगता है. देख छोटे. आज कल न ये समाजसेवी ख़बरों का ज़माना नहीं रहा. भ्रष्टाचार का खुलासा करेगा. अरे वो तो हर जगह है. आज के ज़माने में नई तरह की ख़बरें चलती हैं.
देख छोटे. टीवी चैनल्स को देख. वहां क्या नहीं बिक रहा है. खली चल रहा है. राखी सावंत के लटके-झटके चल रहे हैं. तू इन सबके बीच ये ख़बर कहां से ले आया रे.
लेकिन हुजूर हमें तो यही सिखाया गया. अबे चुप ईडियट. क्या पोंगा पंडितों की बात करता है. देख तेरी इच्छा यही है न कि तू भी बड़ा पत्रकार बने. बड़ी गाड़ी में घूमे. मोटी तनख्वाह पाए. इसलिए जो तूझे सिखाया गया उसको भूल जा. अब जैसा मैं करता हूं वैसा कर तो बड़ा पत्रकार बन जाएगा.
अबे तेरी औकात क्या है छोटे. कहता है बीस साल हो गए पत्रकारिता में. क्या मिला. अरे मिलेगा क्या. बाबाजी का घंटा. हमें देख. दस साल में कहां से कहां पहुंच गए.
छोटा और छोटा हो जाता है. लटका चेहरा लटक कर पैर तक पहुंचता है. घर पहुंचता है तो बीवी की मुस्कान उसे चुड़ैल के अट्टहास की तरह लगती है. कल तक जिस बेटे को सिर आँखों पर रखा उसे लात मार कर बोलता है अबे ओ छोटे की औलाद. तू ज़िंदगी भर छोटे की औलाद ही रहेगा.

गुरुवार, 25 फ़रवरी 2010

खुद उलटे हो कर देखो........


किसी पर तो रहम करो

बुधवार, 24 फ़रवरी 2010

इस ड़ोक्टोरी को क्या कहोगे


फिल्मों में दारोगा का प्रमोशन हो गया है।

जगदीश राज और इफ्तिख़ार की याद आ गई। सब-इंस्पेक्टर और इंस्पेकटर का किरदार इन्हीं दो के नाम रहा। पर्दे पर जब भी आए दारोगा बन कर। अमिताभ,शशि कपूर और शत्रुध्न सिन्हा जैसे बड़े कलाकारों ने भी अपनी फिल्मों दारोगा की वर्दी पहनी है। लेकिन अब फिल्मों से दारोगा का रोल गायब हो रहा है। सेंट्रल कैरेक्टर में दारोगा कब से नहीं है। इस बीच में शायद शूल ही एक फिल्म रही जिसमें दारोगा का रोल महत्वपूर्ण रहा। वर्ना अब इन सारे दारागाओं का प्रमोशन हो गया है। सरफरोश में आमिर खान ने एसीपी की भूमिका अदा की थी। वेडनेसडे में अनुपम खेर पुलिस कमिश्नर बनते हैं। जिस तरह से सिनेमा से फ्रंट स्टाल गायब हो गए उसी तरह से फिल्मों से हमारी ज़िंदगी के आस-पास के ये किरदार भी गायब कर दिए गए। सदाशिव अमरापुरकर और ओम पुरी ने दारोगा के किरदारों की विभत्सता को बखूबी उभारा था। इन किरदारों में एक किस्म की चुनौती होती थी। वो भिड़ते थे और जान भी दे देते थे। वेडनेसडे में पुलिस कमिश्नर अनुपम खेर को कंप्यूटर की हैकिंग के बारे में पता तक नहीं। पंद्रह साल का एक बच्चा आकर मदद करता है। लगता है अब जल्दी ही फिल्मों पुलिसवाले रिटायर्ड अफसर की भूमिका में आयेंगे। दारोगा से कमिश्नर बनने के बाद तो अगली सीढ़ी वही बचती है। सक्सेना और माथुर अब रिटायर्ड होने के बाद किसी घोर आतंकवादी संकट में सरकार की मदद करेंगे। प्रेमचंद ने दारोगा का अलग चित्रण किया है। मेरी मामी कहा करती थीं कि दारोगा का मतलब होता द रो गा के। यानी रोते गाते रहिए लेकिन घूस दीजिए।

तूफान.....ने दिया संपादको को सर खुजाने का मौक़ा


सानिया मिर्ज़ा की निजी ज़िंदगी में एक तूफ़ान खामोशी से गुज़रा है लेकिन वो तूफान अब हिन्दी पत्रकारिता के फटीचर काल की शोभा बढ़ाने के काम आ जाएगा। सानिया का ब्रेक अप ब्रेकिंग न्यूज़ है। सारे गली मोहल्ले के रिश्ते विशेषज्ञ बुलाये जायेंगे। वो समझायेंगे दोस्ती और सगाई के बीच की यात्रा। वो बतायेंगे कि कैसे आज कल कामयाबी के दबाव से रिश्ते दरक जा रहे हैं। बीच बीच में फाइल फुटेज में दांते निपोड़ती सानिया की पुरानी तस्वीर इस मनोचिकित्सक की बात को तसदीक करेगी। कोई सगाई का कार्ड दिखा रहा है तो कोई सोहराब मिर्ज़ी की तस्वीर। अनुप्रास क्षमता से लैस आउटपुट संपादक आज स से शुरू होने वाले तमाम द्विअर्थी शब्दों को निकाल कर वाहवाही प्राप्त करेंगे। टीवी स्क्रिन को ऊर्जा से भर देंगे।सानिया ने सगाई तोड़ कर फटीचर काल के हम संपादकों की कल्पनाशीलता को नई उड़ान दे दी है। इसी बहाने कोई चैनल कॉल इन शो करेगा तो कोई क्यों नहीं टिकती सेलिब्रिटी की शादियां पर पूरा फीचर बना देगा। एंजोलिनी का भी ब्रेक अप होने वाला है। सानिया का हो गया। करीना का भी किसी से टूटा था। प्रीटी ज़िंटा का भी ब्रेक अप हो गया है। कोई यह बतायेगा कि कहीं सानिया की ज़िंदगी में कोई दूसरा तो नहीं आ गया। एक न एक चैनल ज्योतिष और टैरॉट कार्ड रीडर का भी बुलायेगा। एक बतायेगा कि इस बदमाश राहू के कारण सब हो रहा है वही सोहराब के घर में घुस कर फूट डाल रहा है।बवाली रिपोर्टर आज सानिया-सोहराब के घर से बाहर लाइव चैट दे रहे होंगे। बल्कि देने लगे हैं। रेटिंग की नाजायज़ औलाद आज की हिन्दी टीवी पत्रकारिता अपना प्रतिकार करेगी। जावेद अख्‍तर की किसी बची खुची स्क्रिप्ट के किसी किरदार की तरह। जो गुंडा बन कर सिस्टम से प्रतिकार करता है। जावेद अख्तर के इस अप्रतिम योगदान और इससे उपजे अमिताभ बच्चन की शोहरत का मर्म किसी ने समझा है तो हम हिन्दी के पत्रकारों ने। टीवी आज चित्कार मार मार कर बतायेगा कि सानिया और सोहराब के बीच क्या हुआ। टाइम्स ऑफ इंडिया की इस ख़बर ने वो आग दे दी है जिसमें हम सब जलेंगे। अभी अभी ईमेल आया है कि एनडीटीवी इंडिया इस खबर को नहीं दिखायेगा। तो भी मैं अपने आपको इस पतित धारणी हिन्दी पत्रकारिता से अलग नहीं करूंगा। बहने दो इस कीचड़ में खुद को। कादो लपेट कर शरीर को ठंडक पहुंचती है। मज़ा आता है। कीचड़ समानार्थी है। ऐ अर्जुन, रख दे गांडीव। देख हिन्दी टीवी पर क्या आ रिया है। कृष्ण के इस उवाच से घबराया अर्जुन कहता है कि मैंने जब तीर ही नहीं चलाया तो सानिया की सगाई कैसे टूट गई देव। कृष्ण- अर्जुन,कमानों में तीरों को सड़ने के लिए छोड़ दे। सानिया के बाप का एसएमएस आया है। ख़बर कंफर्म है। संपादकों की मंडली एनबीए,पत्रकारिता के इन महान पर्वतीय शिखरों पर आने वाले वक्त में नाज़ करेगी। एक ईमेल भेजेगी। तब तक मंगल ग्रह के दुष्प्रभाव से आलोचक जल कर खाक हो जाएंगे। सच कहूं मुझे यह गंदगी रास आती है। धूल से बेहतर कीचड़ है। अहा..काश भैंसों के इस परमानन्द को गायें समझ पातीं। गया पहुंचने से पहले ही हाजीपुर में गंगा किनारे किचड़ में धंस गया होता,अपना गौतम। आओ,मुझे भी गाली दो। मैं भी इस कीचड़ के आनंद का सहभागी हूं। आओ। कहां हो गौतम। पत्रकारिता के महामण्डलेश्वरों को कलक्टर के दफ्तर में बुलाकर पूछो,किसकी नैतिकता का झंडा सबसे बुलंद है। अखाड़ों में पलता है सनातन धर्म। नंग-धड़ंग डुबकी लगाकर मुक्ति का मार्ग बताता है। जाओ अर्जुन,तुम भी इसी मार्ग से जाओ। कृष्ण की आवाज़ गूंजती है। करनाल में सोये लोग जाग जाते हैं। उठ कर हिन्दी टीवी लगा देते हैं। कृष्ण कहते हैं- सानिया मिर्ज़ा और सोहराब की चंद रातों से मिलता जुलता कोई हिन्दी फिल्म का गाना है रे। पूछ तो भीम से। बोल ओही बजावेगा। तनी सेंटी होकर कुरूक्षेत्र में रिलैक्स किया जाये रे। हटाओ इ अर्जुनवा के। जब देख तब तीरे तनले रहता है। सब लड़इयां इहे लड़ेगा का रे। सेव दुर्योधन। सेव कर्ण। बचाओ। जब सबका संरक्षण हो रहा है तो इ सभन के काहे मार रहा है रे अर्जुन। देख न। लाइव हिन्दी टीवी का महाभारत। चल रिलैक्स करते हैं। कृष्ण- आज ही टीवी पर बेलमुंड ज्योतिष बोल रहा था- वृश्चिक- आज आपके ख़िलाफ साज़िश होगी लेकिन आज आराम महसूस करेंगे। व्हाट अ टाइम सर जी। साज़िश में भी आराम।

रन जीतेगा रिपोर्टर

अच्छी फिलम है। मीडिया के भीतर चल रहे कई संकटों का कोलाज है और एक किस्म का सिनेमाई ब्लॉग। फिलम की कहानी कई सत्य कथाओं का नाटकीय रुपांतरण है। जुलाई २००८ के विश्वासमत के दौरान संसद में रखे गए नोटे के बंडल के ज़रिये एक धृतकुमारी टंकार टाइप के ईमानदार मनमोहन सिंह की छवि बिगाड़ाने की कोशिश और स्टिंग न दिखाये जाने के पीछे की हकीकतों और अफवाहों का मिश्रण। पहले आधे में फिलम मीडिया के कंटेंट के विवाद को छूती है। टीआरपी गिर रही है। अस्तित्व पर संकट है।चैनल घाटे में हैं। तो क्यों न थोड़ा बदल कर मार्केट के बाकी सामानों की तरह हो जाया जाए। ये कहानी कुछ कुछ एनडीटीवी इंडिया के संकट जैसी लगी। साफ साफ किसी का नाम नहीं है लेकिन लेखकीय क्षमता के ज़रिये आप इन नामों और घटनाओं को समझ सकते हैं। जब विजय मलिक अपने कमरे में गिरती टीआरपी की चर्चा करते हैं तो पीछे दीवार पर लगी टीवी में एनडीटीवी इंडिया का लोगो दिखता है। यही एक क्षण है जहां फिल्म वास्तविकता को छूती है। लेकिन यह संयोग भी हो सकता है। वहां से कहानी आगे बढ़ती है और हिन्दी फटीचर काल के तमाम कार्यक्रमों और अनुप्रासों की एक झलक दिखाई जाती है। यहां फिलम थोड़ी कमज़ोर लगती है। कंटेंट के संकट को हलके से छूती है या फिर कहानी का मकसद कंटेंट के संकट से ज़्यादा मीडिया के आर्थिक पक्ष के बहाने उस पर राजनीतिक नियंत्रण को एक्सपोज़ करने का रहा होगा। बिल्कुल सही है कि अब पत्रकारों के सवाल में दम नहीं रहे। न वो आग है। मेरा मानना रहा है कि हिन्दी टेलीविजन का फटीचर काल इसलिए आया क्योंकि सभी स्तरों पर खुद को अच्छा कहने वाले पत्रकार फेल हो गए। वो अच्छा कहलाते रहे लेकिन बेहतर कार्यक्रमों या रिपोर्टिंग के लिए उपयुक्त श्रम नहीं किया। प्रयोग नहीं हुआ। उनकी साख इसलिए बची रह गई क्योंकि वो नैतिकता रूपी पैमाने पर अच्छा और महान मान लिये गए। इन अच्छे पत्रकारों के कार्यक्रम,एंकर लिंक, बोलने का लहज़ा इन सबको करीब से देखेंगे तो संकट का यथार्थ नज़र आएगा। सिर्फ यह कह कर गरिया देना कि खतम हो जाएगा संसार जैसे कार्यक्रम पत्रकारिता नहीं हैं,अधूरी आलोचना है। यह भी देखा जाना चाहिए कि इसके विकल्प का दावा करने वालों के कार्यक्रमों में कितना दम है। कौन से ऐसे बेहतर कार्यक्रम हैं जिनके लिए आप इंतज़ार करते है,जिसे देखकर आप धन्य हो जाते हैं। हो तो मुझे भी बताइयेगा। तभी हम सभी को एक रास्ता मिलेगा। एक बार लोग जूझेंगे कि बेहतर और नया करके इस लड़ाई में उतरते हैं न कि लेख लिख कर या फिर किसी सेमिनार में भाषण देकर। रण की तरह टीवी किसी साहित्यिक पत्रिका की तरह नहीं चल सकती,उसे जन-जन तक पहुंचने की कोशिश करनी ही चाहिए। इसीलिए जब ये बवाल गुज़र जाए तो इस पर भी चर्चा कीजिएगा कि जो जो लोग खुद को अच्छा कहते हैं,लिखने के स्तर पर,रिपोर्टिंग के स्तर या एंकरिंग के स्तर पर,उनके काम में कितनी धार है। ऐसे अच्छे लोगों के कार्यक्रमों की विवेचना कीजिए और देखिये उसमें कितना खरापन है। ये एक किस्म की सार्थक बहस होगी और अच्छा कहलाने वालों पर बेहतर होने का दबाव बनेगा। सिर्फ नैतिकता को बचाकर छत पर खड़े हो जाने से और गलीज़ काम करने वालों को गरिया देने से ये संकट नहीं गुज़रने वाला। गरियाने के बहाने अपनी घटिया कॉपियों,घटिया कैमरा,पीटूसी और बेतरतीब ढंग से लिखी रिपोर्ट और घटिया शो को पब्लिक काहे देखेगी। इसीलिए मुझे लगता है कि मौजूदा संकट खराबी का नहीं,अच्छा समझने वालों की पंगु कल्पनाशीलता का नतीजा है। और यहीं पर रण सार्थक हस्तक्षेप करती है। यहीं पर फिलम मेरे सवालों का हल्का जवाब देती है। परब शास्त्री के किरदार के रूप में। एक धारदार रिपोर्टर ही मीडिया के संकट को खतम करता है। हिन्दी टीवी के फटीचर काल में सभी रिपोर्टर संपादक बन गए। मैदान में कोई धारदार रिपोर्टर नहीं बचा जो खबरों को खोज रहा हो। हो सकता है कि चैनल प्रोत्साहित नहीं करता हो,हो सकता है कि रिपोर्टर भी नहीं करता हो। लेकिन परब शास्त्री का किरदार व्यक्तिगत पहल करने वाला किरदार है। वो अपना काम करता चलता है। खोज रहा किन पर्दों के पीछे साज़िश रची गई। उसके सवाल पत्रकार वाले लगते हैं। त्रिवेदी के सवाल मज़ाक तो उड़ाते हैं लेकिन आप किसी भी पोलिटिकल इंटरव्यू को देख लीजिए,करण थापर को छोड़कर,उसके ज़्यादातर हिस्से में बकवास होता है। परब के सवाल पर कि आप नया क्या करेंगे,पांडे का बड़बड़ना और लड़खड़ना लाजवाब है। रिपोर्टर की ताकत का अहसास करा कर रण ने बड़ा उपकार किया है। एक दौर था जब हिन्दी न्यूज़ चैनलों में कई परब शास्त्री थे। अब दौर ऐसा है कि सब के सब त्रिवेदी हो गए हैं। कई रिपोर्टर अब नेताओं से संपर्क की बात ज़्यादा करते हैं। राजनीतिक दलों के साथ साथ महासचिवों के प्रति निष्ठा पैदा हो गई है। हिन्दी और अंग्रेज़ी दोनों में राजनीतिक पत्रकारिता फटीचर काल को सुशोभित कर रही है। परब शास्त्री आज भी हैं लेकिन उनकी कदर नहीं। मीडिया संस्थान परब शास्त्री बनाना भी नहीं चाहते। कितने हिन्दी के रिपोर्टरों ने चटवाल के मामले की गहन पड़ताल की है। व्यक्तिगत या सांस्थानिक रूप से। सिर्फ इंडियन एक्सप्रेस की रितु सरीन ही क्यों कर रही हैं। ये सवाल तो हिन्दी के रिपोर्टरों को व्यक्तिगत स्तर पर खुद से पूछने ही होंगे। लेकिन ऐसा नहीं है कि आप फिलम से बोर होते हैं। गाने नहीं है। सेक्सी डांस नहीं है। पार्श्व संगीत के ज़रिये चित्कार सुनाई देती है। गाना स्पष्ट नहीं है लेकिन चित्कार से पता चलता है कि बेअसर हो चुका यह माध्यम चीख रहा है। आज कई चैनलों में उद्योगपतियों, राजनीतिक दलों के पैसे लगे हैं। मीडिया ने इसे तब स्वीकार किया जब उस पर संकट नहीं था। कई चैनल राजनेताओं के भी हैं। बिल्डरों और चीनी मिल वालों ने भी चैनल खोलें, उनका अधिकार है, लेकिन पत्रकारिता से उनका क्या लगाव हो सकता है। ये ज़रूर है कि इस फिलम से सीखने के लिए कुछ नहीं है लेकिन ये एक अच्छी डॉक्यूमेंट्री है। नाटकीयता के बहाने ही सही रण एक मौका देती है,माफी मांग कर अपनी-अपनी ज़िम्मेदारियों की तरफ लौटने का। आखिर में फिलम मीडिया के प्रति उदार हो जाती है। ये नहीं कहती कि बंद करो टीवी को देखना। ये एक फिलम नहीं कह सकती। इस संकट को दूर करने के लिए खुद को याद किया जाए कि पत्रकार क्यों बने हैं? लेकिन यह समाधान बेहद सरल और आदर्श है। इससे कुछ नहीं होगा। इससे पहले भी मीडिया के संकटों पर रोज़ लेख लिखे जा रहे हैं, बहस हो रही है और अब तो मंत्री संपादकों से गाइडलाइन इश्यू करवाता है। लोकप्रियता सभी टीवी चैनलों का ख्वाब होना चाहिए। कोई नाम कमाकर लोकप्रिय हो सकता है तो कोई बदनाम होकर। लेकिन सिर्फ निमन बबुआ(good boy) बन कर आप इस रण को नहीं जीत सकते। निमन बबुआ और काबिल बबुआ की लड़ाई शुरू होनी चाहिए। इसलिए रण जारी है दोस्तों।

मंगलवार, 23 फ़रवरी 2010

सदी का महा नालायक.....अमिताभ


अमिताभ बच्चन पर्दे के बाहर भी कलाकार का ही जीवन जीते हैं। पैसा दो और कुछ भी करा लो। कांग्रेस में राजीव गांधी की डुग्गी बजाने के बाद छोटे भाई अमर सिंह के साथ सैफई तक जाकर नाच आए। मुलायम सरकार ने पैसे दिये तो गाने लगे यूपी में हैं दम क्योंकि जुर्म यहां है कम। सारी दुनिया हंसने लगी। जिस प्रदेश का चप्पा चप्पा अपराध में डूब गया हो,वहां फिर से पैदा होने की ख्वाहिश का महानायक पर्दे पर एलान करता है। समाजवादी पार्टी को लगा कि उनकी पार्टी और सरकार को ब्रांड अबेंसडर मिल गया।पूरे चुनाव प्रचार में इस ब्रांड अंबेसडर का टायर पंचर कर दिया गया। अब अमिताभ बच्चन पहुंचे हैं नरेंद्र मोदी के पास। इस एलान के साथ कि कोई भी पैसा दे दे और उनसे कुछ भी बुलवा ले। शायद यही वो कलाकार है जिससे सिगरेट कंपनियां पैसे देकर बुलवा सकती हैं कि सिगरेट पीना स्वास्थ्य के लिए हितकारी है। अमिताभ बोल भी देंगे कि भई पैसे मिले हैं,हम कलाकार हैं और इस विज्ञापन को भी किरदार समझ कर कर दिया है। अमिताभ आज की मीडिया के संकट का प्रतीक है। अपनी विश्वसनीयता का व्यापार करने का प्रतीक। वैसे इनकी विश्वसनीयता तो काफी समय से सवालों के घेरे में हैं।अब नरेंद्र मोदी को झांसा देने पहुंचे हैं। गुजरात सरकार के पर्यटन विभाग के ब्रांड अंबेसडर बनकर। जिस मोदी को देश के तमाम बड़े उद्योगपति प्रधानमंत्री बनाना चाहते थे,उस मोदी के बगल में बैठ कर वो पा के टैक्स फ्री होने का मामूली ख्वाब देख रहे थे। ख़बरों के मुताबिक यहीं पर अमिताभ ने नरेंद्र मोदी से ब्रांड अंबेसडर बनने की पेशकश की थी। आज उनका सपना पूरा हो गया। वैसे भी नरेंद्र मोदी राजनीति में परित्याग की वस्तु तो हैं नहीं। वो एक दल में हैं,जिसकी कई राज्यों में सरकार है। लेकिन गुजरात दंगों के संदर्भ में मोदी राजनीतिक रूप से ही देखे जायेंगे। यह दलील नहीं चलेगी कि वे मोदी का राजनीतिक विरोध करते हैं लेकिन सरकार से परहेज़ भी नहीं करते। अगर ऐसा है तो कम से कम यही कहें कि सरकार तो गुजरात की जनता की है। उसके किसी भी फैसले का सम्मान तो किया ही जाना चाहिए। पर अमिताभ जी उस सम्मान का मतलब यह नहीं कि बिना अपनी राजनीति साफ किये नरेंद्र मोदी के साथ हो लेना चाहिए। राजनीति साफ करने की उम्मीद इसलिए है क्योंकि पिछले हफ्ते तक अमिताभ समाजवादी पार्टी का गुणगान कर रहे थे,उससे पहले कांग्रेस का कर चुके हैं और अब गुजरात के पर्यटन विभाग का करेंगे। अमिताभ की एक दलील हो सकती है कि वो गुजरात में पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए ये सब कर रहे हैं। पर ऐसा क्यों है कि पर्दे पर अभिनय के नये प्रतिमान कायम करते रहने वाले अमिताभ राजनीति के बारे में साफ राय नहीं रख पाते। गुजरात के लिए ज़रूर कुछ करना चाहिए लेकिन वो ब्रांड अंबेसडर बन कर ही क्यों? इससे तो किसी राज्य की सेवा नहीं होती। ब्रांड अंबेसडर बिल्कुल व्यावसायिक गठबंधन होता है। राजनीति में अमिताभ छोटे भाई अमर सिंह के बड़े भाई हैं। जो पिछले हफ्ते ही मुलायमवादी से समाजवादी हुए हैं और लोकमंच बनाकर यूपी में घूमने निकले हैं। क्या अमिताभ छोटे भाई के नए मंच के भी ब्रांड अंबेसडर होने वाले हैं? अगर इसमें कोई दिक्कत नहीं तो क्या मोदी यूपी सरकार के ब्रांड अंबासडर बन सकते हैं? क्या क्रांस ब्रांडिंग हो सकती है? मेरा तुम करो और तुम्हारा मैं करता हूं। छोटे भाई के परिवार का यह बड़ा भाई नरेंद्र मोदी का ब्रांड अंबेसडर बन कर लोकमंच का प्रचार करेगा या नहीं,कहना मुश्किल है। अमिताभ को बताना चाहिए कि वे नरेंद्र दामोदर मोदी की राजनीति का समर्थन करते हैं या नहीं। गुजरात दंगों में मोदी की भूमिका के बारे में साफ करना चाहिए। वो पर्यटन का बहाना न बनाए। अमिताभ के ब्रांड दूत बनने से पहले गुजरात कोई भूखा मरने वाला राज्य नहीं हैं। देश का नंबर वन राज्य है। यह मानना मुश्किल है अमिताभ ने सच्चे सेवा भाव से किया है। समाजवादी पार्टी में दरकिनार कर दिये जाने के बाद ही अमर सिंह को मायावती की पीड़ा समझ आ रही है। उससे पहले वो मायावती के बारे में कैसे बात करते थे,लोगों को याद होगा। अमिताभ अक्सर कहते हैं कि वे राजनीति से दूर हैं। लेकिन मुलायम सिंह यादव और अमर सिंह जैसे घाघ राजनेताओं की संगत में खूब जम कर रहे। अपनी पत्नी जया बच्चन को राज्य सभा में भेजा। अब जया भी अमर सिंह के साथ इस्तीफा नहीं दे रही हैं। दरअसल वे कभी सियासत की संगत से दूर ही नहीं रहे। कभी किसान बन कर ज़मीन लेने चले जाने का आरोप लगता है तो कभी ब्रांड दूत बन कर एक प्रदेश की जनता का सेवक होने का भाव जगाते हैं। अमिताभ इसीलिए एक मामूली कलाकार हैं। पर्दे पर मिली शोहरत की हर कीमत वसूल लेना चाहते होंगे। पर्दे पर पैसे की ताकत से लड़ने वाले किरदारों में ढल कर यह कलाकार महानायक बना लेकिन असली ज़िंदगी में पैसे की ताकत के आगे नतमस्तक होकर महानालायक लगता है।

कोटा ke समीप भंवर कुञ्ज.


राजस्थान का स्वर्ग कोटा ke समीप भंवर कुञ्ज.


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पानी केबीच पिकक्निक.....


चम्बल का kinara


राजस्थान का स्वर्ग कोटा ke समीप भंवर कुञ्ज.


महत्वाकांक्षा में "गुम" बच्चे


राजेश त्रिपाठी

कोटाशहर में लापता होने वाले छात्रों की कहानी पर यकीन करें तो कोटा के अपराध का चेहरा कुछ ओर नजर आता है। ज्यादातर लापता छात्र खुद अपने अपहरण की कहानी बताते हैं, जिससे परिजन बेहाल होते हैं तो पुलिस चकरघिन्नी। दरअसल कोटा आने वाले कई छात्र परिजनों की महत्वाकांक्षा की भेंट चढ़ रहे हैं। ऎसे छात्र पढ़ने में कमजोर होते हैं और सालभर बचने के रास्ते तलाशते हैं। जब उन्हें कुछ नहीं सूझता तो वे "लापता" हो जाते हैं। हर साल तकरीबन दो दर्जन से अधिक छात्रों के ऎसे मामले सामने आते हैं।चिकित्सकों का मानना है कि परिजनों की कसौटी पर खरे नहीं उतरने का डर छात्रों से इस तरह की घटनाएं करवाता है। उन्हें पसंद के कॅरियर में भेजा जाए तो वे वहां कुछ अच्छा कर सकते हैं। ऎसे दो दर्जन से अधिक छात्र मनोचिकित्सकों से उपचार करवा रहे हैं। बड़ी संख्या में छात्र घरों में तनाव भुगत रहे हैं। उधर, विज्ञाननगर थानाधिकारी संजय शर्मा के मुताबिक ऎसे किसी भी मामले में पुलिस सबसे पहले छात्र के अध्ययन का रिकॉर्ड तलाशती है। बीमारी भी बहानापरीक्षा से पहले अत्यधिक तनावग्रस्त के चलते कई बच्चों को अजीब बीमारियां होने लगती हैं। कुछ छात्र धुंधला दिखने की शिकायत करते हैं, तो कुछ हाथ-पैर सुन्न होने समेत अन्य लक्षण बताने लगते हैं। चिकित्सक इसे "कन्वर्जन डिसआर्डर" कहते हैं। परीक्षाएं समाप्त होने पर सब सामान्य हो जाता है।यह सोच-समझ कर किया जाता है। पढ़ाई में कमजोर छात्र अक्सर सोचते हैं कि वे अपनी कमजोरी को जाहिर करेंगे तो लोग उनका मजाक बनाएंगे। परिणाम अच्छे नहीं आए तो परिजनों का दबाव बढ़ेगा। ऎसे में उन्हें घर से भागना ही एक मात्र रास्ता दिखता है।-डॉ. भरतसिंह शेखावत, मनोचिकित्सककेस- एकपिछले दिनों कोटा के महावीर नगर इलाके से लापता एक छात्र ने दिल्ली में अपने दोस्त के घर से एसएमएस कर खुद के अपहरण की बात कही और परिजनों से एक करोड़ रूपए की फिरौती मांगी।केस- दोदो वर्ष पहले तलवंडी से लापता एक छात्र ने जम्मू रेलवे स्टेशन से फोन पर परिजनों को बताया कि उसे आतंककारी अगवा कर ले गए। वह किसी तरह उनकी गिरफ्त से छूट कर भागा।

सोमवार, 22 फ़रवरी 2010

आत्मविश्वास और यकीन की नई कहानी

माय नेम इज़ ख़ान हिन्दी की पहली अंतर्राष्ट्रीय फिल्म है। हिन्दुस्तान, इराक, अफग़ानिस्तान, जार्जिया का तूफ़ान और अमरीका के राष्ट्रपति का चुनाव। कई मुल्कों, कई कथाओं के बीच मुस्लिम आत्मविश्वास और यकीन की नई कहानी है। पहचान के सवालों से टकराती यह फिल्म अपने संदर्भ और समाज के भीतर से ही जवाब ढूंढती है। किसी किस्म का विद्रोह नहीं है,उलाहना नहीं है बल्कि एक जगह से रिश्ता टूटता है तो उसी समय और उसी मुल्क के दूसरे हिस्से में एक नया रिश्ता बनता है। विश्वास कभी कमज़ोर नहीं होता। ऐसी कहानी शाहरूख जैसा कद्दावर स्टार ही कह सकता था। पात्र से सहानुभूति बनी रहे इसलिए वो एक किस्म की बीमारी का शिकार बना है। मकसद है खुद बीमार बन कर समाज की बीमारी से लड़ना।मुझे किसी मुस्लिम पात्र और नायक के इस यकीन और आत्मविश्वास का कई सालों से इंतज़ार था। राम मंदिर जैसे राष्ट्रीय सांप्रदायिक आंदोलन के बहाने हिन्दुस्तान में मुस्लिम पहचान पर जब प्रहार किया गया और मुस्लिम तुष्टीकरण के बहाने सभी दलों ने उन्हें छोड़ दिया,तब से हिन्दुस्तान का मुसलमान अपने आत्मविश्वास का रास्ता ढूंढने में जुट गया। अपनी रिपोर्टिंग और स्पेशल रिपोर्ट के दौरान मेरठ, देवबंद,अलीगढ़,मुंबई,दिल्ली और गुजरात के मुसलमानों की ऐसी बहुत सी कथा देखी और लोगों तक पहुंचाने की कोशिश की। जिसमें मुसलमान तुष्टीकरण और मदरसे के आधुनिकीकरण जैसे फालतू के विवादों से अलग होकर समय के हिसाब से ढलने लगा और आने वाले समय का सामना करने की तैयारी में शामिल हो गया। तभी रिज़वान ख़ान पूरी फ‍िल्म में नुक़्ते के साथ ख़ान बोलने पर ज़ोर देता है। बताने के लिए पूर्वाग्रही लोग मुसलमानों के बारे में कितना कम जानते हैं। मुझे आज भी वो दृश्य नहीं भूलता। अहमदाबाद के पास मेहसाणां में अमेरिका के देत्राएत से आए करोड़पति डॉक्टर नकादर। टक्सिडो सूट में। एक खूबसूरत बुज़ूर्ग मुसलमान। गांव में करोड़ों रुपये का स्कूल बना दिया। मुस्लिम बच्चों के लिए। लेकिन पढ़ाने वाले सभी मज़हब के शिक्षक लिए गए। नकादर ने कहा था कि मैं मुसलमानों की एक ऐसी पीढ़ी बनाना चाहता हूं जो पहचान पर उठने वाले सवालों के दौर में खुद आंख से आंख मिलाकर दूसरे समाजों से बात कर सकें। किसी और को ज़रिया न बनाए। इसके लिए उनके स्कूल के मुस्लिम बच्चे हर सोमवार को हिन्दू इलाके में सफाई का काम करते हैं। ऐसा इसलिए कि शुरू से ही उनका विश्वास बना रहे। कोशिश होती है कि हर मुस्लिम छात्र का एक दोस्त हिन्दू हो। स्कूल में हिन्दू छात्रों को भी पढ़ने की इजाज़त है।नकादर साहब से कारण पूछा था। जवाब मिला कि कब तक हमारी वकालत दूसरे करेंगे। कब तक हम कांग्रेस या किसी सेकुलर के भरोसे अपनी बेगुनाही का सबूत देंगे। आज गुजरात में कांग्रेस हिन्दू सांप्रदायिक शक्तियों के भय से मुसलमानों को टिकट नहीं देती है। हम किसी को अपनी बेगुनाही का सबूत नहीं देना चाहते। हम चाहते हैं कि मुस्लिम पीढ़ी दूसरे समाज से अपने स्तर पर रिश्ते बनाए और उसे खुद संभाले। बीते कुछ सालों की यह मेरी प्रिय सत्य कथाओं में से एक है। लेकिन ऐसी बहुत सी कहानियों से गुज़रता चला गया जहां मुस्लिम समाज के लोग तालीम को बढ़ावा देने के लिए तमाम कोशिशें करते नज़र आए। उन्होंने मोदी के गुजरात में किसी कांग्रेस का इंतज़ार छोड़ दिया। मुस्लिम बच्चों के लिए स्कूल बनाने लगे।रोना छोड़कर आने वाले कल की हंसी के लिए जुट गए।माइ नेम इज खान में मुझे नकादर और ऐसे तमाम लोगों की कोशिशें कामयाब होती नज़र आईं, जो आत्मविश्वास से भरा मुस्लिम मध्यमवर्ग ढूंढ रहे थे। फिल्म देखते वक्त समझ में आया कि इस कथा को पर्दे पर आने में इतना वक्त क्यों लगा। खुदा के लिए,आमिर और वेडनेसडे आकर चली गईं। इसके बाद भी ये फिल्म क्यों आई। ये तीनों फिल्में इंतकाम और सफाई की बुनियाद पर बनी हैं। इन फिल्मों के भीतर आतंकवाद के दौर में पहचान के सवालों से जूझ रहे मुसलमानों की झिझक,खीझ और बेचैनी थी। माइ नेम इज ख़ान में ये तीनों नहीं हैं। शाहरूख़ ख़ान आज के मुसलमानों के आत्मविश्वास का प्रतीक है। उसका किरदार रिज़वान ख़ान सफाई नहीं देता। पलटकर सवाल करता है। आंख में आंख डालकर और उंगलियां दिखाकर पूछता है। इसलिए यह फिल्म पिछले बीस सालों में पहचान के सवाल को लेकर बनी हिन्दी फिल्मों में काफी बड़ी है। अंग्रेज़ी में भी शायद ऐसी फिल्म नहीं बनी होगी। इस फिल्म में मुसलमानों के अल्पसंख्यक होने की लाचारी भी नहीं है और न हीं उनकी पहचान को चुनौती देने वाले नरेंद्र मोदी जैसे नेताओं की मौजूदगी है। यह फिल्म दुनिया के स्तर पर और दुनिया के किरदार-कथाओं से बनती है। हिन्दुस्तान की ज़मीं पर दंगे की घटना को जल्दी में छू कर गुज़र जाती है। यह बताने के लिए कि मुसलमान हिन्दुस्तान में जूझ तो रहा ही है लेकिन वो अब उन जगहों में भेद भाव को लेकर बेचैन है जिनसे वो अपने मध्यमवर्गीय सपनों को साकार करने की उम्मीद पालता है। अमेरिका से भी नफरत नहीं करती है यह फिल्म। माय नेम इज़ ख़ान की कथा में सिर्फ मुस्लिम हाशिये पर नहीं है। यह कथा सिर्फ मुसलमानों की नहीं है। इसलिए इसमें एक सरदार रिपोर्टंर बॉबी आहूजा है। इसलिए इसमें मोटल का मालिक गुजराती है। इसलिए इसमें जार्जिया के ब्लैक हैं। अमेरिका में आए तूफानों में मदद करने वाले ब्लैक को भूल गए। लेकिन माइ नेम इज़ ख़ान का यह किरदार किसी इत्तफाक से जार्जिया नहीं पहुंचता। जब बहुसंख्यक समाज उसे ठुकराता है,उससे सवाल करता है तो वो बेचैनी में अमेरिका के हाशिये के समाज से जाकर जुड़ता है। तूफान के वक्त रिज़वान उनकी मदद करता है। उसके पीछे बहुत सारे लोग मदद लेकर पहुंचते हैं। फिल्म की कहानी अमेरिका के समाज के अंतर्विरोध और त्रासदी को उभारती है और चुपचाप बताती है कि हाशिये का दर्द हाशिये वाला ही समझता है। इराक जंग में मंदिरा के अमेरिकी दोस्त की मौत हो जाती है। उसका बेटा मुसलमानों को कसूरवार मानता है। उसकी व्यक्तिगत त्रासदी उस सामूहिक पूर्वाग्रह में पनाह मांगती है जो एक दिन अपने दोस्त समीर की जान ले बैठती है। इधर व्यक्तिगत त्रासदी के बाद भी रिज़वान कट्टरपंथियों के हाथ नहीं खेलता। मस्जिद में हज़रत इब्राहिम का प्रसंग काफी रोचक है। यह उन कट्टरपंथी मुसलमानों के लिए है जो यथार्थ के किसी अन्याय के बहाने आतंकवाद के समर्थन में दलीलें पेश करते हैं। रिज़वान उन्हें पकड़वाने की कोशिश करता है। वो कुरआन शरीफ से हराता है फिर एफबीआई की मदद मांगता है। घटना और किरदार अमेरिका के हैं लेकिन असर हिन्दुस्तान के दर्शकों में हो रहा था। जार्ज बुश और बराक हुसैन ओबामा के बीच के समय की कहानी है। ओबामा मंच पर आते हैं और नई उम्मीद का संदेश देते हैं। यहीं पर फिल्म अमेरिका का प्रोपेगैंडा करती नज़र आती है। मेरी नज़र से इस फिल्म का यही एक कमज़ोर क्षण है। बराक हुसैन ओबामा रिज़वान से मिल लेते हैं। वैसे ही जैसे काहिरा में जाकर अस्सलाम वलैकुम बोलकर दिल जीतने की कोशिश करते हैं लेकिन पाकिस्तान और अफगानिस्तान पर उनकी कोई साफ नीति नहीं बन पाती। याद कीजिए ओबामा के हाल के भाषण को जिसमें वो युद्ध को न्यायसंगत बताते हैं और कहते हैं कि मैं गांधी का अनुयायी हूं लेकिन गांधी नहीं बन सकता। इसके बाद भी यह हमारे समय की एक बड़ी फिल्म है। हॉल में दर्शकों को रोते देखा तो उनकी आंखों से संघ परिवार और सांप्रदायिक दलों की सोच को बहते हुए भी देखा। जो सालों तक हिन्दू मुस्लिम का खेल खेलते रहे। मुंबई में इसकी आखिरी लड़ाई लड़ी गई। कम से कम आज तक तो यही लगता है। एक फिल्म से दुनिया नहीं बदल जाती है। लेकिन एक नज़ीर तो बनती ही है। जब भी ऐसे सवाल उठाये जायेंगे कोई कऱण जौहर,कोई शाहरूख के पास मौका होगा एक और माइ नेम इज़ ख़ान बनाने का। फिल्म देखने के बाद समझ में आया कि क्यों शाहरूख़ ख़ान ने शिवसेना के आगे घुटने नहीं टेके। अगर शाहरूख़ माफी मांग लेते तो फिल्म की कहानी हार जाती है। ऐसा करके शाहरूख खुद ही फिल्म की कहानी का गला घोंट देते। शाहरूख़ ऐसा कर भी नहीं सकते थे। उनकी अपनी निजी ज़िंदगी भी तो इस फिल्म की कहानी का हिस्सा है। हिन्दुस्तान में तैयार हो रही नई मध्यमवर्गीय मुस्लिम पीढ़ी की आवाज़ बनने के लिए शाहरूख़ का शुक्रिया।

रविवार, 21 फ़रवरी 2010

हर आंख में आंसू...और दिल में दर्द के प्रायोजक हैं न्यूज़ चैनल

26/11 यानी

पुण्य प्रसून बाजपेयी
......मोहन आगाशे तो कह सकता है प्रसून....लेकिन अपन किससे कहें। क्यों आपके पास पूरा न्यूज चैनल का मंच है..जो कहना है कहिये..यही काम तो बीते तीन सालों से हो रहा है। यही तो मुश्किल है.....जो हो रहा है वह दिखायी दे रहा है..लेकिन जो करवा रहा है, वही गायब है । असल में शनिवार यानी 28 नवंबर को देर शाम मुबंई में मीडिया से जुडे उन लोगो से मुलाकात हुई जो न्यूज चैनलों में कार्यक्रमों को विज्ञापनों से जोड़ने की रणनीति बनाते हैं। और 26/11 को लेकर कवायद तीन महीने पहले से चलने लगी।
लेकिन किस स्तर पर किस तरह से किस सोच के तहत कार्यक्रम और विज्ञापन जुड़ते हैं, यह मुंबई का अनुभव मेरे लिये 26/11 की घटना से भी अधिक भयावह था। और उसके बाद जो संवाद मुंबई के चंद पत्रकारों के साथ हुआ, जो मराठी और हिन्दी-अग्रेजी के राष्ट्रीय न्यूज चैनलों से जुड़े थे, वह मेरे लिये आतंकवादी कसाब से ज्यादा खतरनाक थे।जो बातचीत में निकला वह न्यूज चैनलों के मुनाफा बनाने की गलाकाट प्रतियोगिता में किस भावना से काम होता अगर इसे सच माना जाये तो कैसे.....जरा बानगी देखिये। एक न्यूज चैनल में मार्केटिंग का दबाव था कि अगर सालस्कर...कामटे और करकरे की विधवा एक साथ न्यूज चैनल पर आ जायें और उनके जरिये तीनो के पति की मौत की खबर मिलने पर उस पहली प्रतिक्रिया का रिक्रियेशन करें और फिर इन तीनो को सूत्रधार बनाकर कार्यक्रम बनाया जाये तो इसके खासे प्रयोजक मिल सकते हैं । अगर एक घंटे का प्रोग्राम बनेगा तो 20-25
मिनट का विज्ञापन तो मार्केटिग वाले जुगाड लेंगे। यानी 10 से 15 लाख रुपये तो तय मानिये।वहीं एक प्रोग्राम शहीद संदीप उन्नीकृष्णन के पिता के उन्नीकृष्णन के ऊपर बनाया जा सकता है । मार्केटिंग वाले प्रोग्रामिंग विभाग से और प्रोग्रामिग विभाग संपादकीय विभाग से इस बात की गांरटी चाहता था कि प्रोग्राम का मजा तभी है, जब शहीद बेटे के पिता के. उन्नीकृष्णन उसी तर्ज पर आक्रोष से छलछला जायें, जैसे बेटे की मौत पर वामपंथी मुख्यमंत्री के आंसू बहाने के लिये अपने घर आने पर उन्होंने झडक दिया था। यानी बाप के जवान बेटे को खोने का दर्द और राजनीति साधने का नेताओ के प्रयास पर यह प्रोग्राम हो।विज्ञापन जुगाड़ने वालो का दावा था कि अगर इस प्रोग्राम के इसी स्वरुप पर संपादक ठप्पा लगा दे तो एक घंटे के प्रोग्राम के लिये ब्रांडेड कंपनियो का विज्ञापन मिल सकता है । 8 से 10 लाख की कमायी आसानी से हो सकती है। वहीं विज्ञापन जुगाड़ने वाले विभाग का मानना था कि अगर लियोपोल्ड कैफे के भीतर से कोई प्रोग्राम ठीक रात दस बजे लाइव हो जाये तो बात ही क्या है। खासकर लियोपोल्ड के पब और डांस फ्लोर दोनों जगहों पर रिपोर्टर रहें। जो एहसास कराये कि बीयर की चुस्की और डांस की मस्ती के बीच किस तरह आतंकवादी वहां गोलियों की बौछार करते हुये घुस गये। .....कैसे तेज धुन में थिरकते लोगों को इसका एहसास ही नहीं हुआ कि नीचे पब में गोलियों से लोग मारे जा रहे हैं.....यानी सबकुछ लाइव की सिचुएशन पैदा कर दी जाये तो यह प्रोग्राम अप-मार्केट हो सकता है, जिसमें विज्ञापन के जरीये दस-पन्द्रह लाख आसानी से बनाये जा सकते हैं।और अगर लाइव करने में खर्चेा ज्यादा होगा तो हम लियोपोल्ड कैफे को समूचे प्राईम टाइम से जोड़ देंगे। जिसमें कई तरह के विज्ञापन मिल सकते हैं। यानी बीच बीच में लियोपोल्ड दिखाते रहेंगे और एक्सक्लूसिवली दस बजे। इससे खासी कमाई चैनल को हो सकती है । लेकिन मजा तभी है जब बीयर की चुस्की और डांस फ्लोर की थिरकन साथ साथ रहे। एक न्यूज चैनल लीक से हटकर कार्यक्रम बनाना चाहता था। जिसमें बच्चों की कहानी कही जाये। यानी जिनके मां-बाप
26/11 हादसे में मारे गये......उन बच्चों की रोती बिलकती आंखों में भी उसे चैनल के लिये गाढ़ी कमाई नजर आ रही थी। सुझाव यह भी था कि इस कार्यक्रम की सूत्रधार अगर देविका रोतावन हो जाये तो बात ही क्या है। देविका दस साल की वही लड़की है, जिसने कसाब को पहचाना और अदालत में जा कर गवाही भी दी।एक चैनल चाहता था एनएसजी यानी राष्ट्रीय सुरक्षा जवानो के उन परिवारो के साथ जो 26/11 आपरेशन में शामिल हुये । खासकर जो हेलीकाप्टर से नरीमन हाऱस पर उतरे। उसमें चैनल का आईडिया यही था कि परिजनो के साथ बैठकर उस दौरान की फुटेज दिखाते हुये बच्चों या पत्नियो से पूछें कि उनके दिल पर क्या बीत रही थी जब वे हेलीकाप्टर से अपनी पतियों को उतरते हुये देख रही थीं। उन्हें लग रहा था कि वह बच जायेंगे। या फिर कुछ और.......जाहिर है इस प्रोग्राम के लिये भी लाखों की कमाई चैनल वालो ने सोच रखी थी।26/11 किस तरह किसी उत्सव की तरह चैनलों के लिय़े था, इसका अंदाज बात से लग सकता है कि दीपावली से लेकर न्यू इयर और बीत में आने वाले क्रिसमस डे के प्रोग्राम से ज्यादा की कमाई का आंकलन 26/11 को लेकर हर चैनल में था। और मुनाफा बनाने की होड़ ने हर उस दिमाग को क्रियटिव और अंसवेदवशील बना दिया था जो कभी मीडिया को लोगों की जरुरत और सरकार पर लगाम के लिये काम करता था।जाहिर है न्यूज चैनलों ने 26/11 को जिस तरह राष्ट्रभक्ति और आतंक के खिलाफ मुहिम से जोड़ा, उससे दिनभर कमोवेश हर चैनल को देखकर यही लगा कि अगर टीवी ना होता तो बेडरुम और ड्राइंग रुम तक 26/11 का आक्रोष और दर्द दोनों नहीं पहुंच पाते । लेकिन 26/11 की पहली बरसी के 48 घंटे बाद ही मुबंई ने यह एहसास भी करा दिया कि आर्थिक विकास का मतलब क्या है और मुंबई क्यों देश की आर्थिक राजधानी है। और कमाई के लिये कैसे न्यूज चैनल ब्रांड में तब्दील कर देते है
26/11 को। याद किजिये मुबंई हमलों के दो दिन बाद प्रधानमंत्री 28/11/2008 को देश के नाम अपने संबोधन में किस तरह डरे-सहमे से जवानों के गुण गा रहे थे। वही प्रधानमंत्री मुंबई हमलों की पहली बरसी पर देश में नहीं थे बल्कि अमेरिका में थे और घटना के एक साल बाद 25/11/2009 को अमेरिकी जमीन से ही पाकिस्तान को चुनौती दे रहे थे कि गुनाहगारो को बख्शा नहीं जायेगा। तो यही है 26/11 की हकीकत, जिसमें टैक्सी ड्राइवर मोहन आगाशे का अपना दर्द है.......न्यूज चैनलो की अपनी पूंजी भक्ति और प्रधानमंत्री की जज्बे को जिलाने की अपनी राष्ट्र भक्ति। आपको जो ठीक लगे उसे अपना लीजिये ।

...तो नहीं होती 1857 की क्रांति!

अंग्रेज शासकों ने कर्नल स्लीमन की बात मानी होती तो 1857 की क्रांति टल सकती थी। यह कहना है कर्नल विलियम हेनरी स्लीमन की सातवीं पीढ़ी के वंशज स्टुअर्ट फिलिप स्लीमन का। लंदन निवासी स्टुअर्ट फिलिप स्लीमन, ससेक्स निवासी भाई जेरेमी विलियम स्लीमन के साथ पहली भारत यात्रा पर आए हुए हैं।

स्टुअर्ट के अनुसार कर्नल विलियम हेनरी स्लीमन ने वर्ष 1856 में तत्कालीन अंगे्रज अधिकारियों को लिखे पत्र में अवध की गद्दी पर कब्जा करने से मना किया था। अंग्रेज अधिकारी यदि कर्नल स्लीमन की बात गंभीरता से लेते तो 1857 की क्रांति को टाला जा सकता था। स्टुअर्ट ने बताया कि मेजर जनरल सर विलियम हेनरी स्लीमन (केसीबी) 1857 के पहले ही स्वदेश लौटे, जहां रास्ते में श्रीलंका के समीप उनकी मृत्यु हो गई। स्टुअर्ट और जेरेमी 16 जनवरी को नई दिल्ली आए और दो दिन पूर्व जबलपुर पहुंचे। शहर आने के बाद दोनों बंधुओं ने जबलपुर और स्लीमनाबाद में कर्नल स्लीमन की स्मृतियों से जुड़े हुए स्थानों का भ्रमण किया। हेरिटेज इंडिया के संस्थापक रमेश गठौरिया ने दोनों बंधुओं का ड्रीमलैण्ड फन पार्क में सम्मान भी किया। सेवानिवृत हो चुके जेरेमी स्लीमन शहर की छह यात्राएं कर चुके है।

कर्नल स्लीमन से जुड़ी यादों को साझा करते हुए बंधुओं ने बताया कि कर्नल स्लीमन ने 96 एकड़ जमीन भूमिहीनों को दान की थी। ठगों के उन्मूलन के साथ उनके रोजगार के उद्देश्य से दरी का कारखाना खोला था। बाद के वर्षो में इस जगह का नाम दरीखाना मशहूर हो गया। स्टुअर्ट और जेरेमी ने क्राइस्ट चर्च केथेड्रिल जाकर सर स्लीमन के सम्मान में लगी पिका भी देखी। स्लीमन रोड पर चहलकदमी करते हुए अपने पूर्वज की याद भी जेरेमी और स्टुअर्ट ने ताजा की। बंधुओं ने सर विलियम स्लीमन की यादों को अक्ष्क्षुण बनाए रखने के लिए स्लीमन सम्मान समिति के सदस्यों के प्रति आभार व्यक्त किया।

कौन थे स्लीमन
कर्नल स्लीमन का जबलपुर के विकास में खासा योगदान रहा। शहर के करीब एक कस्बे को उन्हीं के नाम (स्लीमनाबाद) से जाना जाता है। ख्यात ठग पिंडारियों के उन्मूलन का श्रेय भी उन्हीं को जाता है।

पत्रकारों से जेयूसीएस की अपील

नक्सलवाद/माओवाद/आतंकवाद की रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकारों से जेयूसीएस की अपील

साथी,
पत्रकार बंधुओं,

देश में नक्सलवाद/माओवाद/आतंकवाद के नाम पर चल रहे सरकारी दमन के बीच मीडिया और आप सभी की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण हो जाती है। सत्ता जब मीडिया को अपना हथियार व पुलिस पत्रकारों को अपने बंदूक की गोली की भूमिका में इस्तेमाल करे तो ऐसे समय में हमे ज्यादा सर्तक रहने की जरूरत है। पुलिस की ही तरह हमारे कलम से निकलने वाली गोली से भी एक निर्दोष के मारे जाने की भी उतनी ही सम्भावना होती है, जितनी की एक अपराधी की। हमें यहां यह बातें इसलिए कहनी पड़ रही हैं क्योंकि नक्सलवाद/माओवाद/आतंकवाद जैसे मुददों पर रिपोर्टिंग करते समय हमारे ज्यादातर पत्रकार साथी न केवल पुलिस के प्रवक्ता नजर आते हैं, बल्कि उससे कहीं ज्यादा वह उन पत्रकारीय मूल्यों को भी ताक पर रख देते हैं, जिसके बल पर उनकी विश्वसनियता बनी है।हमें दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि हाल ही में इलाहाबाद में पत्रकार सीमा आजाद व कुछ अन्य लोगों की गिरफ़्तारी के बाद भी मीडिया व पत्रकारों का यही रूख देखने को मिला। सीमा आजाद इलाहाबाद में करीब 12 सालों से एक पत्रकार, सामाजिक-राजनैतिक कार्यकर्ता के बतौर सक्रिय रही हैं। इलाहाबाद में कोई भी सामाजिक व्यक्ति या पत्रकार उन्हें आसानी से पहचानता होगा। कुछ नहीं तो वैचारिक-साहित्यिक सेमिनार/गोष्ठियां कवर करने वाले पत्रकार उन्हें बखूबी जानते होंगे। लेकिन आश्चर्य की बात है कि जब पुलिस ने उन्हीं सीमा आजाद को माओवादी बताया तो किसी पत्रकार ने आगे बढ़कर इस पर सवाल नहीं उठाया। आखिर क्यो? क्यों अपने ही बीच के एक व्यक्ति या महिला को पुलिस के नक्सली/माओवादी बताए जाने पर हम मौन रहे? पत्रकार के तौर पर हम एक स्वाभाविक सा सवाल क्यों नहीं पूछ सके कि किस आधार पर एक पत्रकार को नक्सली/माओवादी बताया जा रहा है? क्या कुछ किताबें या किसी के बयान के आधार पर किसी को राष्ट्रद्रोही करार दिया जा सकता है? और अगर पुलिस ऐसा करती है तो एक सजग पत्रकार के बतौर क्या हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं बनती?पत्रकार साथियों को ध्यान हो, तो यह अक्सर देखा जाता है कि किसी गैर नक्सली/माओवादी की गिरफ्तारी दिखाते समय पुलिस एक रटा-रटाया सा आरोप उन पर लगाती है। मसलन यह फलां क्षेत्र में फलां संगठन की जमीन तैयार कर रहा था/रही थी, या कि वह इस संगठन का वैचारिक लीडर था/थी, या कि उसके पास से बड़ी मात्रा में नक्सली/माओवादी साहित्य (मानो वह कोई गोला बारूद हो) बरामद हुआ है। आखिर पुलिस को इस भाषा में बात करने की जरूरत क्यों महसूस होती है? क्या पुलिस के ऐसे आरोप किसी गंभीर अपराध की श्रेणी में आते हैं? किसी राजनैतिक विचारधारा का प्रचार-प्रसार करना या किसी खास राजनैतिक विचारधारा (भले ही वो नक्सली/माओवादी ही क्यों न हो) से प्रेरित साहित्य पढ़ना कोई अपराध है? अगर नहीं तो पुलिस द्वारा ऐसे आरोप लगाते समय हम चुप क्यों रहते हैं? क्यों हम वही लिखते हैं,जो पुलिस या उसके प्रतिनिधि बताते हैं। यहां तक की पुलिस किसी को नक्सलवादी/माओवादी/आतंकवादी बताती है और हम उसके आगे ‘कथित’ लगाने की जरूरत भी महसूस नहीं करते। क्यों ?हम जानते हैं कि हमारे वो पत्रकार साथी जो किसी खास दुराग्रह या पूर्वाग्रह से ग्रसित नहीं होते, वह भी खबरें लिखते समय ऐसी ‘भूल’ कर जाते हैं। शायद उन्हें ऐसी ‘भूल’ के परिणाम का अंदाजा न हो। उन्हें नहीं मालूम की ऐसी 'भूल' किसी की जिंदगी और सत्ता-पुलिसतंत्र की क्रूरता की गति को तय करते हैं।जर्नलिस्ट यूनियन फार सिविल सोसायटी (जेयूसीएस) सभी पत्रकार बंधुओं से अपील करती हैं कि नक्सलवाद/माओवाद/आतंकवाद की रिपोर्टिंग करते समय कुछ मूलभूत बातों का ध्यान अवश्य रखें।

* साथियों, नक्सलवाद/माओवाद/आतंकवाद तीनों अलग-अलग विचार हैं। नक्सलवाद/माओवाद राजनैतिक विचारधाराएं हैं तो आतंकवाद किसी खास समय, काल व परिस्थियों से उपजे असंतोष का परिणाम है। यह कई बार हिंसक व विवेकहीन कार्रवाई होती है जो जन समुदाय को भयाक्रांत करती है. इन सभी घटनाओं को एक ही तराजू में नहीं तौला जा सकता। नक्सलवादी/माओवादी विचारधारा का समर्थक होना कहीं से भी अपराध नहीं है। इस विचारधारा को मानने वाले कुछ संगठन खुले रूप में आंदोलन चलाते हैं और चुनाव लड़ते हैं तो कुछ भूमिगत रूप से संघर्ष में विश्वाश करते हैं। कुछ भूमिगत नक्सलवादी/माओवादी संगठनों को सरकार ने प्रतिबंधित कर रखा है। लेकिन यहीं यह ध्यान रखने योग्य बात है कि इन संगठनों की विचारधारा को मानने पर कोई मनाही नहीं है। इसीलिए पुलिस किसी को नक्सलवादी/माओवादी विचारधारा का समर्थक बताकर गिरफ्तार नहीं कर सकती है, जैसा की पुलिस अक्सर करती है.। हमें विचारधारा व संगठन के अंतर को समझना होगा।

* इसी प्रकार पुलिस जब यह कहती है कि उसने नक्सलवादी/माओवादी/आतंकवादी साहित्य (कई बार धार्मिक साहित्य को भी इसमें शामिल कर लिया जाता है) पकड़ा है तो उनसे यह जरूर पूछा जाना चाहिये कि आखिर कौन-कौन सी किताबें इसमें शामिल हैं। मित्रों, लोकतांत्रिक व्यवस्था में किसी खास तरह की विचारधारा से प्रेरित होकर लिखी गई किताबें रखना/पढ़ना कोई अपराध नहीं है। पुलिस द्वारा अक्सर ऐसी बरामदगियों में कार्ल मार्क्स/लेनिन/माओत्से तुंग/स्टेलिन/भगत सिंह/चेग्वेरा/फिदेल कास्त्रो/चारू मजूमदार/किसी संगठन के राजनैतिक कार्यक्रम या धार्मिक पुस्तकें शामिल होती हैं। ऐसे समय में पुलिस से यह भी पूछा जाना चाहिए कि कालेजों/विश्वविद्यलयों में पढ़ाई जा रही इन राजनैतिक विचारकों की किताबें भी नक्सली/माओवादी/आतंकी साहित्य हैं? क्या उसको पढ़ाने वाला शिक्षक/प्रोफेसर या पढ़ने वाले बच्चे भी नक्सली/माओवादी/आतंकी हैं? पुलिस से यह भी पूछा जाना चाहिए कि प्रतिबंधित साहित्य का क्राइटेरिया क्या है, या कौन सा वह मीटर/मापक है जिससे पुलिस यह तय करती है कि यह नक्सली/माओवादी/आतंकी साहित्य है।

* यहाँ एक बात और ध्यान देने योग्य है की अक्सर देखा जाता है की पुलिस जब कोई हथियार, गोला-बारूद बरामद करती है तो मीडिया के सामने खुले रूप में (कई बार बड़े करीने से सजा कर) पेश की जाती है, लेकिन वही पुलिस जब नक्सलवादी/माओवादी/आतंकवादी साहित्य बरामद करती है तो उसे सीलबंद लिफाफों में पेश करती है. इन लिफाफों में क्या है हमें नहीं पता होता है लेकिन हमारे सामने इसके लिए कुछ 'अपराधी' हमारे सामने होते हैं. आप पुलिस से यह भी मांग करे कीबरामद नक्सलवादी/माओवादी/आतंकवादी साहित्य को खुले रूप में सार्वजनिक किया जाए।
* मित्रों, नक्सलवाद/माओवाद/आतंकवाद के आरोप में गिरफ्तारियों के पीछे किसी खास क्षेत्र में चल रहे राजनैतिक/सामाजिक व लोकतांत्रिक आन्दोलनों को तोड़ने/दबाने या किसी खास समुदाय को आतंकित करने जैसे राजनैतिक लोभ छिपे होते हैं। ऐसे समय में यह हमें तय करना होता है कि हम किसके साथ खड़े होंगे। सत्ता की क्रूर राजनीति का सहभागी बनेंगे या न्यूनतम जरूरतों के लिए चल रहे जनआंदोलनों के साथ चलेंगे।
* हम उन तमाम संपादकों/स्थानीय संपादकों/मुख्य संवाददातों से भी अपील करते हैं , की वह अपने क्षेत्र में नक्सलवादी/माओवादी/आतंकवादी घटनाओं की रिपोर्टिंग की जिम्मेदारी अपराध संवाददाता (क्राइम रिपोर्टर) को न दें. यहाँ ऐसा सुझाव देने के पीछे इन संवाददाताओं की भूमिका को कमतर करके आंकना हमारा कत्तई उद्देश्य नहीं है. हम केवल इतना कहना चाहते हैं की यह संवाददाता रोजाना चोर, उच्चकों, डकैतों और अपराधों की रिपोर्टिंग करते-करते अपने दिमाग में खबरों को लिखने का एक खांचा तैयार कर लेते हैं और सारी घटनाओं की रिपोर्ट तयशुदा खांचे में रहकर लिखते है। नक्सलवाद/माओवाद/आतंकवाद की रिपोर्टिंग हम तभी सही कर सकते हैं जब हम इस तयशुदा खांचे से बहार आयेगे. नक्सलवाद/माओवाद/आतंकवाद कोई महज आपराधिक घटनाएँ नहीं है, यह शुद्ध रूप से राजनैतिक मामला है।
* हमे पुलिस द्वारा किसी पर भी नक्सलवादी/माओवादी/आतंकवादी होने के लगाए जा रहे आरोपों के सत्यता की पुख्ता जांच करनी चाहिये। पुलिस से उन आरोपों के संबंध में ठोस सबूत मांगे जाने चाहिये। पुलिस से ऐसे कथित नक्सलवादी/माओवादी/आतंकवादी के पकड़े जाने के आधार की जानकारी जरूर लें।
* हमें पुलिस के सुबूत के अलावा व्यक्तिगत स्तर पर भी सत्यता की जांच करने की कोशिश करना चाहिये। मसलन अभियुक्त के परिजनों से बातचीत करना चाहिये। परिजनों से बातचीत करते समय अतिरिक्त सावधानी बरतने की जरूरत होती है। अक्सर देखा जाता है कि पुलिस के आरोपों के बाद ही हम उस व्यक्ति को अपराधी मान बैठते हैं और उसके बाद उसके परिजनों से भी ऐसे सवाल पूछते हैं जो हमारी स्टोरी व पुलिस के दावों को सत्य सिद्ध करने के लिए जरूरी हों। ऐसे समय में हमें अपने पूर्वाग्रह को कुछ समय के लिए किनारे रखकर, परिजनों के दर्द को सुनने/समझने की कोशिश करनी चाहिए। शायद वहां से कोई नयी जानकारी निकल कर आए जो पुलिस के आरोपों को फर्जी सिद्ध करे।
* मित्रों, कोई भी अभियुक्त तब तक अपराधी नहीं है, जब तक कि उस पर लगे आरोप किसी सक्षम न्यायालय में सिद्ध नहीं हो जाते या न्यायालय उसे दोषी नहीं करार देती। हमें केवल पुलिस के नक्सलवादी/माओवादी/आतंकवादी बताने के आधार पर ही इन शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए। ऐसे शब्द लिखते समय ‘कथित’ या ‘पुलिस के अनुसार’ जरूर लिखना चाहिये। अपनी तरफ से कोई जस्टिफिकेशन नहीं देना चाहिये।

पत्रकार बंधुओं,यहां इस तरह के सुझाव देने के पीछे हमारा यह कत्तई उद्देश्य नहीं है कि आप किसी नक्सलवादी/माओवादी/आतंकवादी का साथ दें। हम यहां कोई ज्ञान भी नहीं देना चाहते। हमारा उद्देश्य केवल इतना सा है कि ऐसे मसलों की रिपोर्टिंग करते समय हम जाने/अनजाने में सरकारी प्रवक्ता या उनका हथियार न बन जाए। ऐसे में जब हम खुद को लोकतंत्र का चौथा-खम्भा या वाच डाग कहते हैं तो जिम्मेदारी व सजगता की मांग और ज्यादा बढ़ जाती है। जर्नलिस्ट यूनियन फार सिविल सोसायटी (जेयूसीएस) आपको केवल इसी जिम्मेदारी का एहसास करना चाहती है।
उम्मीद है कि आपकी लेखनी शोषित/उत्पीड़ित समाज की मुखर अभिव्यक्ति का माध्यम बन सकेगी !!
- निवेदक
आपके साथी,
विजय प्रताप, राजीव यादव, अवनीश राय, ऋषि कुमार सिंह, चन्द्रिका, शाहनवाज आलम, अनिल, लक्ष्मण प्रसाद, अरूण उरांव, देवाशीष प्रसून, दिलीप, शालिनी वाजपेयी, पंकज उपाध्याय, विवेक मिश्रा, तारिक शफीक, विनय जायसवाल, सौम्या झा, नवीन कुमार सिंह, प्रबुद़ध गौतम, पूर्णिमा उरांव, राघवेन्द्र प्रताप सिंह, अर्चना मेहतो, राकेश कुमार।
जर्नलिस्ट यूनियन फार सिविल सोसायटी (जेयूसीएस) की ओर से जनहित में जारी

इनके भरोसे कैसे सुरकश्साः........

खाओगे तो दिखेगा भी सही, पुलिस के ये दो अधिकारी अपने जूतों रंग देख कर नहीं बता सकते.फिटनेस की कमी और मोटापा पुलिस में बड़ी समस्या बन गई है.जिसे देखने की किस को फुर्सत नहीं है.

शनिवार, 20 फ़रवरी 2010

शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले......

आजादी के बाद देश ने उस जंजीर को तो संघरालय में संभाल कर रखा. जिससे महात्मा गाँधी अपनी बकरी को बांध कर रखते थे.लेकिन देश ने उस फंदे को नहीं संभाला जिससे भगत सिंह को फांसी पर चदाया गया था. ये फोटो लाहौर जेल का haजहा भगत सिंह को फांसी दी गई थी.

पत्रकार की पाती, संपादक के नाम

कम्पैक्ट (अमर उजाला, इलाहाबाद ) के संपादक के नाम खुला पत्र

‘‘विश्वविद्यालय में खंगाले जा रहे हैं माओवादियों के सूत्र’’ इस शीर्षक से इलाहाबाद में अमर उजाला के कम्पैक्ट अखबार में एक खबर 16 फरवरी को छापी गयी या कहें छपवायी गयी। इस खबर में बाईलान से नवाजे गए अक्षय कुमार की खोजी पत्रकारिता औरमार्क्सवाद की उनकी समझ और खुफिया आईबी से पत्रकारों के कैसे गठजोड़ और फिर कैसी अवैध खबरों की पैदाइश होती है, को आसानी से समझा जा सकता है। पिछले दिनों जर्नलिस्ट यूनियन फॉर सिविल सोसाइटी द्वारा जारी पत्र में हमने अपने पत्रकार साथियों से अपील की थी कि नक्सलवाद जैसे गंभीर मसले पर रिपोर्टिंग करने से पहले हमें सतर्कता और सावधानी बरतने की जरुरत है। अगर हम ऐसा नहीं करते तो इसका खामियाजा जनता और उसके लोकतंत्र के लिए लड़ रही आवाजों को भुगतना पड़ता है। नए टैबलायड अखबार या नौसिखिए पत्रकार कह हम इस मामले को टालते हैं तो यह हमारी भूल होगी क्योंकि यह एक रुपए का अखबार छात्रों को अधिक सुविधाजनक रुप से मिल जाता है। कम्पैक्ट की इस खबर को इसलिए भी गंभीरता से लेने की जरुरत है क्योंकि इस नैसिखिए पत्रकार ने बीस-तीस साल के इलाहाबाद युनिवर्सिटी के इतिहास को खंगाले गए तथ्यों के आधार पर यह खबर बनायी जो उसके बस की बात नहीं है। और खबर की भाषा के हिचकोले बताते हैं कि उसको बताने वाला कोई खुफिया विभाग का आदमी है। मसलन "विश्वविद्यालय के एक विभाग के पूर्व अध्यक्ष ने सिवान में सर्वहारा वर्ग के समर्थन में ऐसा भाषण दिया कि उन पर निगाह रखी जाने लगी। वहां से लौटने के बाद उन्होंने विश्वविद्यालय में वामंपथी विचारधारा को फैलान का काम किया। इन लोगों के मार्क्सवादी नेताओं से सीधे संपर्क भी हैं।" इन लाइनों को पढ़ ऐसा लगता है कि सर्वहारा किसी विशेष उपग्रह का प्राणी है और मार्क्सवाद कोई छूआछूत की बीमारी। रही बात मार्क्सवादी नेताओं से सीधे संपर्क कि तो पत्रकार बन्धु को यह जान लेना चाहिए कि हमारे देश में भाकपा माओवादी प्रतिबंधित है न कि मार्क्सवाद या माओवाद। अगर मेरी इस बात का यकीन न हो तो किसी भी किताब की दुकान और विश्वविद्यालय के तमाम विभागों में इन विचारधाराओं की किताबों के जखीरे हैं। इस बात की जानकारी के बाद हो सकता है यह पत्रकार अगली खबर लिख दे कि किताबों की दुकानों और विश्वविद्यालय के विभागों में हैं नक्सली साहित्य के जखीरे। दरअसल यह पत्रकार नहीं उसको सूचना देने वाले पुलिसिया सूत्र के दिमाग की उपज है जिसमें उन लोगों ने इस तरह से तमाम लोगों को नक्सली साहित्य के नाम पर पकड़ कर जेलों में डाल दिया। पिछले दिनों पत्रकार और मानवाधिकारा नेता सीमा आजाद को भी इसी तरह के झूठे आरोप लगाकर जेल में डाल दिया गया। पर एक पत्रकार और खुफिया विभाग के दिमाग और सोचने का तरीका तो एक नहीं हो सकता। मार्क्सवादी नेताओं से सीधे संपर्क पर अक्षय को कहां से जानकारी मिली इसकी भी पुष्टि हम कर देते हैं। पिछले दिनों वरिष्ठ वामपंथी नेता कामरेड ज्योति बसु पर एक कार्यक्रम निराला सभागार में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी सीपीएम द्वारा कराया गया था। जहां सभी ने उनके बारे में और उनसे मुलाकातों के बारे में बात-चीत कर श्रद्वांजली दी। पर खुफिया मित्र के लिए यह अचरज की बात थी कि इतने कद्दावर नेता से भले कैसे कोई मिल सकता है, कोई न कोई बात जरुर है और रही-सही कसर वहां ज्योति बसु को दी जा रही लाल सलामी ने पूरी कर दी क्योंकि पिछले दिनों लाल सलाम का नारा लगाने वालों को नक्सली कहने का इलाहाबाद की पुलिस और मीडिया वालों की आदत बन गयी है। पत्रकार साथी को उस अपने परिसर सूत्र के बारे में भी जानना चाहिए और पूछना चाहिए कि वो कौन लोग और कौन संगठन थे। छात्र राजनीति या किसी भी विचारधारा की लोकतांत्रिक तरीके से राजनीति करने का अधिकार संविधान देता है। क्या इतनी समझ इस पत्रकार को नहीं हैं। हो सकता है न समझ में आए तो उसके लिए सरकारों द्वारा दिए जा रहे माओवादियों पर बयानों को गंभीरता से पढ़ने की जरुरत है। सरकार इतने दिनों से लाखों रुपए खर्च कर सैकड़ों प्रेस कांफ्रेंसों में इस बात को कहती रही है कि माओवादी लोकतांत्रिक राजनीति की मुख्यधारा में आएं। यानि कि वही विचारधारा या लोग प्रतिबंधित है जो लोकतांत्रिक व्यवस्था को नहीं मानते। ऐसे में अगर कोई व्यक्ति विश्वविद्यालय जैसे जगहों पर मुख्यधारा में राजनीति करता है तो उसे कैसे प्रतिबंधित कहा जा सकता है। रहा मार्क्सवाद तो मार्क्सवाद एक गतिशील विचारधारा है जो किसी व्यक्ति में सोचने-समझने का नजरिया विकसित करती है। और सोचना समझना पत्रकारों के लिए बहुत आवश्यक है। कई पूर्व, वर्तमान शिक्षक, छात्र नेता निशाने पर हैं, इस बात को सिर्फ इस आधार पर नहीे कहा जा सकता कि वो मार्क्सवाद की समझ या उससे समस्याओं का राजनीति हल निकालते हैं, एक सतही सोच के शब्द हैं। जर्नलिस्ट यूनियन फॉर सिविल सोसाइटी के मीडिया मानिटरिंग सेल द्वारा लगातार इलाहाबाद के खबरों की मानिटरिंग की जा रही है। हम ऐसी खबरों पर पत्रकार, नागरिक समाज, गृह मंत्रालय और प्रेस काउंसिल ऑफ इडिया को लगातार अवगत कराते रहे हैं कि खबरें जो भविष्य की राजनीति तय करती है और आम जनता को आवाज देती हैं के माध्यमों को गृह मंत्रालय को सिर्फ कटिंग भेजने के लिए किस प्रकार पुलिस खुफिया और मीडिया गठजोड़ काम कर रहा है।

जर्नलिस्ट यूनियन फॉर सिविल सोसाइटी (जेयूसीएस) राष्ट्रीय कार्यकारिणी द्वारा राष्ट्रहित में जारी-

विजय प्रताप, राजीव यादव, शाहनवाज आलम, लक्ष्मण प्रसाद, अवनीश राय, ऋषि कुमार सिंह, चंद्रिका, अरूण उरांव, अनिल, दिलीप, राघवेन्द्र प्रताप सिंह, देवाशीष प्रसून, राकेश कुमार, प्रबुद्ध गौतम, शालिनी वाजपेयी, नवीन कुमार, पंकज उपाध्याय, विनय जायसवाल, सौम्या झा, पूर्णिमा उरांव, अर्चना मेहतो, तारिक शफीक, मसीहुद्दीन संजरी, पीयूष तिवारी व अन्य साथी।
इसे यहाँ भी देखें
http://jucsindia.blogspot.com/2010/02/blog-post_8682.html
http://naipirhi.blogspot.com/2010/02/blog-post_2798.html

शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2010

ये पुलिस के डंडे को देख कर नाच नहीं रहा है

.कोटा में हुआ क्रिकेट मैच के बाद मची भगदर में ये बेचारा पुलिसवाले के सामने आ गया और बचने के लिया पुलिसवाले को रिझाने लगा. पुलिस भला ऐसे कहाँ मानती है. डंडा पड़ना था सो पड़ गया. शायद एक सो का नोट हाथ में होता तो लड़के की जगह पुलिसवाला नाच रहा होता.

पुलिस और रुपये का रिश्ता

पुलिस और रुपये का रिश्ता काफी पुराना और मशहूर हे. नोट सामने देखते ही पुलिसवालों का चेहरा ख़ुशी से खिल जाता है. मामला कोटा के एक पुलिस थाने का है. गलत मत समझिय. पुलिस ने एक सेवानिवृत अधिकारी का काला धन पकड़ा है. उसे ही थानाधिकारी गिन रहे है.


गुरुवार, 18 फ़रवरी 2010

...लेकिन "अंधेरे" में देश का "केन्द्र"

राजेश त्रिपाठी/हीरेन जोशी


करौंदी, (जबलपुर)। सुप्रभात भारत, नए साल की प्रभात वेला में पूरे देश में नए संकल्पों का उजियारा फैल रहा है, लेकिन देश के केन्द्र बिन्दु तक विकास की उजास अब तक नहीं पहुंच सकी है। प्रदेश की सांस्कृतिक राजधानी जबलपुर के पास कटनी जिले में विंध्य पर्वतमाला की केंचुआ पहाडियों की ढलान स्थित देश के इस भौगोलिक केन्द्र बिन्दु तक आजादी के 63 साल बाद भी विकास की रोशनी नहीं पहुंची है।

मिट गई पहचान
आजादी के बाद डॉ.राममनोहर लोहिया की प्रेरणा से जबलपुर इंजीनियरिंग कॉलेज के संस्थापक प्राचार्य एस.पी.चक्रवर्ती की अगुआई में अनुसंधान शुरू किया गया। पता चला कि 23-30-48 उत्तरी अक्षांश, 80-19-53 पूर्वी देशांतर तथा समुद्र तल से 389.53 मीटर की ऊंचाई पर देश का भौगालिक केन्द्र बिन्दु है। डॉ. लोहिया ने यहां एक अंतरराष्ट्रीय आदर्श गांव बनाने का संकल्प लिया था। लोहिया के निधन के वर्षो बाद 1987 में पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर यहां आए और एक स्मारक बना। इस स्थान का नाम मनोहरगांव रखा गया, पर इससे आगे कुछ नहीं हो सका। आज स्मारक जर्जर हो चुका है। इस पर लोगों ने अपने नाम लिख रखे हैं। एक तरफ से इसकी पियां उखाड़ी जा रही हैं।

"शायद...शासन का केन्द्र है"
केन्द्र बिन्दु से 200 मीटर दूरी पर ही रह रहे स्थानीय निवासी सहदेव से बात की तो उसने बताया कि शायद यहां शासन का कोई मध्य बिन्दु है। पीने के पानी के लिए 1.5 किलोमीटर जाना पड़ता है। इतनी ही दूरी पर एक प्राथमिक शाला है। इलाज के लिए 8 किलोमीटर दूर बनेपान गांव जाना पड़ता है। केन्द्र बिन्दु से 500 मीटर दूर ही खेल रहे बच्चों ने बताया कि वे आज तक स्कूल नहीं गए हैं।

"पत्रिका" पहुंचा, देखे हालात
पत्रिका संवादाताओं ने 23-30-48 उत्तरी अक्षांश, 80-19-53 पूर्वी देशांतर तथा समुद्र तल से 389.53 मीटर की ऊंचाई पर देश के ठीक बीचो-बीच जाकर हालात देखे तो दंग रह गए। हम 21वीं सदी के दूसरे दशक के पहले वर्ष की पहली भोर में कदम रख रहे हैं पर देश के भौगोलिक केन्द्र पर बसे गांव में बिजली, पानी, सड़क, शिक्षा, चिकित्सा की प्राथमिक सुविधाएं तक मुहैया नहीं हैं। जीवन सैकड़ों साल पुराने ढर्रे पर चल रहा है।

साभार पत्रिका

स्वागत !

पढ़ते रहो ब्लॉग पर आप सभी का स्वागत है।
- राजेश त्रिपाठी