बुधवार, 24 फ़रवरी 2010

रन जीतेगा रिपोर्टर

अच्छी फिलम है। मीडिया के भीतर चल रहे कई संकटों का कोलाज है और एक किस्म का सिनेमाई ब्लॉग। फिलम की कहानी कई सत्य कथाओं का नाटकीय रुपांतरण है। जुलाई २००८ के विश्वासमत के दौरान संसद में रखे गए नोटे के बंडल के ज़रिये एक धृतकुमारी टंकार टाइप के ईमानदार मनमोहन सिंह की छवि बिगाड़ाने की कोशिश और स्टिंग न दिखाये जाने के पीछे की हकीकतों और अफवाहों का मिश्रण। पहले आधे में फिलम मीडिया के कंटेंट के विवाद को छूती है। टीआरपी गिर रही है। अस्तित्व पर संकट है।चैनल घाटे में हैं। तो क्यों न थोड़ा बदल कर मार्केट के बाकी सामानों की तरह हो जाया जाए। ये कहानी कुछ कुछ एनडीटीवी इंडिया के संकट जैसी लगी। साफ साफ किसी का नाम नहीं है लेकिन लेखकीय क्षमता के ज़रिये आप इन नामों और घटनाओं को समझ सकते हैं। जब विजय मलिक अपने कमरे में गिरती टीआरपी की चर्चा करते हैं तो पीछे दीवार पर लगी टीवी में एनडीटीवी इंडिया का लोगो दिखता है। यही एक क्षण है जहां फिल्म वास्तविकता को छूती है। लेकिन यह संयोग भी हो सकता है। वहां से कहानी आगे बढ़ती है और हिन्दी फटीचर काल के तमाम कार्यक्रमों और अनुप्रासों की एक झलक दिखाई जाती है। यहां फिलम थोड़ी कमज़ोर लगती है। कंटेंट के संकट को हलके से छूती है या फिर कहानी का मकसद कंटेंट के संकट से ज़्यादा मीडिया के आर्थिक पक्ष के बहाने उस पर राजनीतिक नियंत्रण को एक्सपोज़ करने का रहा होगा। बिल्कुल सही है कि अब पत्रकारों के सवाल में दम नहीं रहे। न वो आग है। मेरा मानना रहा है कि हिन्दी टेलीविजन का फटीचर काल इसलिए आया क्योंकि सभी स्तरों पर खुद को अच्छा कहने वाले पत्रकार फेल हो गए। वो अच्छा कहलाते रहे लेकिन बेहतर कार्यक्रमों या रिपोर्टिंग के लिए उपयुक्त श्रम नहीं किया। प्रयोग नहीं हुआ। उनकी साख इसलिए बची रह गई क्योंकि वो नैतिकता रूपी पैमाने पर अच्छा और महान मान लिये गए। इन अच्छे पत्रकारों के कार्यक्रम,एंकर लिंक, बोलने का लहज़ा इन सबको करीब से देखेंगे तो संकट का यथार्थ नज़र आएगा। सिर्फ यह कह कर गरिया देना कि खतम हो जाएगा संसार जैसे कार्यक्रम पत्रकारिता नहीं हैं,अधूरी आलोचना है। यह भी देखा जाना चाहिए कि इसके विकल्प का दावा करने वालों के कार्यक्रमों में कितना दम है। कौन से ऐसे बेहतर कार्यक्रम हैं जिनके लिए आप इंतज़ार करते है,जिसे देखकर आप धन्य हो जाते हैं। हो तो मुझे भी बताइयेगा। तभी हम सभी को एक रास्ता मिलेगा। एक बार लोग जूझेंगे कि बेहतर और नया करके इस लड़ाई में उतरते हैं न कि लेख लिख कर या फिर किसी सेमिनार में भाषण देकर। रण की तरह टीवी किसी साहित्यिक पत्रिका की तरह नहीं चल सकती,उसे जन-जन तक पहुंचने की कोशिश करनी ही चाहिए। इसीलिए जब ये बवाल गुज़र जाए तो इस पर भी चर्चा कीजिएगा कि जो जो लोग खुद को अच्छा कहते हैं,लिखने के स्तर पर,रिपोर्टिंग के स्तर या एंकरिंग के स्तर पर,उनके काम में कितनी धार है। ऐसे अच्छे लोगों के कार्यक्रमों की विवेचना कीजिए और देखिये उसमें कितना खरापन है। ये एक किस्म की सार्थक बहस होगी और अच्छा कहलाने वालों पर बेहतर होने का दबाव बनेगा। सिर्फ नैतिकता को बचाकर छत पर खड़े हो जाने से और गलीज़ काम करने वालों को गरिया देने से ये संकट नहीं गुज़रने वाला। गरियाने के बहाने अपनी घटिया कॉपियों,घटिया कैमरा,पीटूसी और बेतरतीब ढंग से लिखी रिपोर्ट और घटिया शो को पब्लिक काहे देखेगी। इसीलिए मुझे लगता है कि मौजूदा संकट खराबी का नहीं,अच्छा समझने वालों की पंगु कल्पनाशीलता का नतीजा है। और यहीं पर रण सार्थक हस्तक्षेप करती है। यहीं पर फिलम मेरे सवालों का हल्का जवाब देती है। परब शास्त्री के किरदार के रूप में। एक धारदार रिपोर्टर ही मीडिया के संकट को खतम करता है। हिन्दी टीवी के फटीचर काल में सभी रिपोर्टर संपादक बन गए। मैदान में कोई धारदार रिपोर्टर नहीं बचा जो खबरों को खोज रहा हो। हो सकता है कि चैनल प्रोत्साहित नहीं करता हो,हो सकता है कि रिपोर्टर भी नहीं करता हो। लेकिन परब शास्त्री का किरदार व्यक्तिगत पहल करने वाला किरदार है। वो अपना काम करता चलता है। खोज रहा किन पर्दों के पीछे साज़िश रची गई। उसके सवाल पत्रकार वाले लगते हैं। त्रिवेदी के सवाल मज़ाक तो उड़ाते हैं लेकिन आप किसी भी पोलिटिकल इंटरव्यू को देख लीजिए,करण थापर को छोड़कर,उसके ज़्यादातर हिस्से में बकवास होता है। परब के सवाल पर कि आप नया क्या करेंगे,पांडे का बड़बड़ना और लड़खड़ना लाजवाब है। रिपोर्टर की ताकत का अहसास करा कर रण ने बड़ा उपकार किया है। एक दौर था जब हिन्दी न्यूज़ चैनलों में कई परब शास्त्री थे। अब दौर ऐसा है कि सब के सब त्रिवेदी हो गए हैं। कई रिपोर्टर अब नेताओं से संपर्क की बात ज़्यादा करते हैं। राजनीतिक दलों के साथ साथ महासचिवों के प्रति निष्ठा पैदा हो गई है। हिन्दी और अंग्रेज़ी दोनों में राजनीतिक पत्रकारिता फटीचर काल को सुशोभित कर रही है। परब शास्त्री आज भी हैं लेकिन उनकी कदर नहीं। मीडिया संस्थान परब शास्त्री बनाना भी नहीं चाहते। कितने हिन्दी के रिपोर्टरों ने चटवाल के मामले की गहन पड़ताल की है। व्यक्तिगत या सांस्थानिक रूप से। सिर्फ इंडियन एक्सप्रेस की रितु सरीन ही क्यों कर रही हैं। ये सवाल तो हिन्दी के रिपोर्टरों को व्यक्तिगत स्तर पर खुद से पूछने ही होंगे। लेकिन ऐसा नहीं है कि आप फिलम से बोर होते हैं। गाने नहीं है। सेक्सी डांस नहीं है। पार्श्व संगीत के ज़रिये चित्कार सुनाई देती है। गाना स्पष्ट नहीं है लेकिन चित्कार से पता चलता है कि बेअसर हो चुका यह माध्यम चीख रहा है। आज कई चैनलों में उद्योगपतियों, राजनीतिक दलों के पैसे लगे हैं। मीडिया ने इसे तब स्वीकार किया जब उस पर संकट नहीं था। कई चैनल राजनेताओं के भी हैं। बिल्डरों और चीनी मिल वालों ने भी चैनल खोलें, उनका अधिकार है, लेकिन पत्रकारिता से उनका क्या लगाव हो सकता है। ये ज़रूर है कि इस फिलम से सीखने के लिए कुछ नहीं है लेकिन ये एक अच्छी डॉक्यूमेंट्री है। नाटकीयता के बहाने ही सही रण एक मौका देती है,माफी मांग कर अपनी-अपनी ज़िम्मेदारियों की तरफ लौटने का। आखिर में फिलम मीडिया के प्रति उदार हो जाती है। ये नहीं कहती कि बंद करो टीवी को देखना। ये एक फिलम नहीं कह सकती। इस संकट को दूर करने के लिए खुद को याद किया जाए कि पत्रकार क्यों बने हैं? लेकिन यह समाधान बेहद सरल और आदर्श है। इससे कुछ नहीं होगा। इससे पहले भी मीडिया के संकटों पर रोज़ लेख लिखे जा रहे हैं, बहस हो रही है और अब तो मंत्री संपादकों से गाइडलाइन इश्यू करवाता है। लोकप्रियता सभी टीवी चैनलों का ख्वाब होना चाहिए। कोई नाम कमाकर लोकप्रिय हो सकता है तो कोई बदनाम होकर। लेकिन सिर्फ निमन बबुआ(good boy) बन कर आप इस रण को नहीं जीत सकते। निमन बबुआ और काबिल बबुआ की लड़ाई शुरू होनी चाहिए। इसलिए रण जारी है दोस्तों।

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