गुरुवार, 25 मार्च 2010

आपने पहली बार देखा होगा.......फोटो भिवानी का है..

रोमांटिक लव लेटर


(हस्त पुस्तिका प्रेम-पत्र रोमांटिक लव लेटर। लेखक हैं अवधेश कुमार उर्फ मुंशी जी।)

मुंशी जी सही मायने में प्रेमचंद हैं। प्रेम के तमाम एंगल पर ख़त लिखने का हुनर किसी साहित्य अकादमी वालों की नज़र से नहीं गुजरता। देश की गलियों में पलते हुए बुढ़ा रही तमाम प्रतिभाओं के सम्मान में बिना मुंशीजी से पूछे उनकी एक महान रचना को इंटरनेट पर पेश किया जा रहा है। मुंशी जी की दुनिया में आज भी ख़त पत्र है।

शीर्षक- अनजाने प्रेमी का पत्र

जाने सनम,

जब से मैंने आपके सौंदर्य को एक नज़र निहारा है तब से दिल बेकरार है। अब आप को बग़ैर जाने पहिचाने ही कैसे किसी पर मोहित होकर प्यार जताने का अधिकार है। सवाल ठीक है परन्तु दिल जब आ जाता है तो किसी से रोके नहीं रुकता। अब सवाल यह उठता है कि प्यार अनजाने क्यों किया?मेरी जान,प्यार करने से नहीं बल्कि हो ही जाता है चाहे किसी से भी हो जाए तभी तो जब से आपको देखा है तब से पहलू में दिल बेचैन है,मैं स्वयं भी समझने में असमर्थ हूं क्योंकि-

दिल आ गया तुम पर, दिल ही तो है।
तड़पे क्यों न, बिसमिल ही तो है।।

मैं क्या बताऊं कि मुझे क्या हो गया। हर समय दिल काबू से बाहर हो गया। माइन्ड पर कंट्रोल नहीं रहा है। मेरे दिल की मलिका, मैंने आपको जब से सुभाष पार्क में गांधी जयंती में अपने परिवार के साथ टहलते देखा तब से ही ह्रदय में एक हलचल पैदा हो गई जिसे मैं रोकने में असमर्थ हूं और बहुत देर से न्योछावर करता हूं। यूं तो आज तक लाखों हसीना मेरी आंखों के आगे गुज़रे होंगे परन्तु ईश्वर ने आपकी अदा ही निराली बक्शी है। जिसने मुझे दीवाना बना दिया।

देखा जो हुश्न आपका, तबियत मचल गई।
आँखों का था कसूर, छुरी दिल में चल गई।।

प्रिय जाने मन और गुलबदन तुम क्या जानो कि आपको वियोग में हमारे दिल पर क्या क्या गुजर रही है। दिन पर दिन दहशत बढ़ती जा रही है। ख्याल बदलते जाते हैं। आखिर दिल बेचैन हो कर यही कहता है-

तुझे क्या खबर वे मुर्ब्बत किसी की।
हुई तेरे गम में क्या, हालत किसी की।।

इतना ही नहीं इश्क के सिद्धांत यहां तक बढ़ गई कि पागलों की तरह मारा मारा आपकी कोठरी के इर्द-गिर्द फिरता हूं। इस ख्याल में कि एक बार वो चांद सा मुखड़ा देखने का अवसर मिल जाए ताकि ये तड़पता हुआ दिल किसी तरह तस्कीन पाए।

रात दिन सोचते हुए समय व्यतीत कर दिया, फैसला हो न सका। आखिर आत्मघात कर लेने का विचार किया परन्तु आपका प्रेम और दर्शन की आशा ने मुझे मरने भी नहीं दिया।आपको कालिज पहुंचाने को आपका ड्राइवर कार लाया और आपको बुलाने ज्यों ही अंदर गया बस मेरी आत्मा प्रफुल्लित हो गई। मैंने शीघ्र ही यह प्रेम पत्र जान बूझकर सुन्दर लिफाफे में बन्द करके आपकी सीट पर डाल दिया। अब इंतजार पत्र के उत्तर पाने को है। अब आप चाहे जो कहें मगर मैं तो यही कहूंगा-

जवानी दीवानी गजब ढा रही है।
मोहब्बत के पहलू में लहरा रही है।।
किया खत का मजमून खतम चुपके चुपके।।
रुकी अब कलम यहीं पर चुपके चुपके।

अधिक क्या लिखूं रंग लाने को ही बहुत है।
आपका अनजाना प्रेमी सतीश

श्वेत अश्वेत......क्यूं

राधा क्यों गोरी मैं क्यूं काला की जगह राधा क्यों श्वेत मैं क्यूं अश्वेत...क्या ऐसा सुनना पसंद करेंगे इस गाने को। अंग्रेज़ी में ब्लैक ही कहा जा रहा है हिंदी के मास्टरों ने अश्वेत बना दिया है। पता नहीं किस कूड़ेदान से इस शब्द को उठाकर अखबारों के पन्नों पर फेंक दिया गया है। राजनीतिक चेतना हमेशा ग़लत शब्दों के कारण फूहड़ होती है।

जो काला है वो काला है। जो गोरा है वो गोरा है। अश्वेत कह कर आप किसी काले को ही संबोधित करना चाहते हैं। ठीक है कि काले की संवेदनशीलता का ख्याल रखा जाता है पर क्या वो नहीं जानता कि अश्वेत सिर्फ एक बहाना है। असल में आशय काला ही है। बराक ओबामा को हिंदी मीडिया के स्टाइल शीट प्रोफेसर क्या लिखें। अश्वेत या श्वेत। ओबामा की हर खबर में यह फटीचर शब्द आता है। अश्वेत। काला शब्द में खराबी नहीं। सिर्फ उसके पीछे की अवधारणा में है। जो लड़ाई लड़ी जा रही है वो काला शब्द के खिलाफ नहीं है बल्कि अवधारणा से होगी। वो अवधारणा जिसे समाज तय करता है।

तभी तो बोली मुसकाती मैया सुन मेरे प्यारे। गा गा कर यशोदा नंद के सवालों का जवाब नहीं देती। मगर यशोदा यह नहीं कहती कि काला होना खराब है। बेटे कान्हा तुम काले नहीं अश्वेत हो। राधा भी गोरी नहीं कान्हा, वो तो श्वेत है। ऑटोग्राफ का हिंदी में क्या शब्द हो। यह धारणा तो हिंदी की नहीं है न। मुझे नहीं लगता कि हनुमान ने राम और सीता का ऑटोग्राफ मांगा होगा या अकबर ने तानसेन। वर्ना इसका भी हिंदी शब्द होता ही। नहीं है तो ऑटोग्राफ कहने में क्या हर्ज़।

मुझे नहीं पता ओबामा क्या करेंगे। एक काला राष्ट्रपति। हमारे यहां भी कई काले और गोरे राष्ट्रपति बन चुके हैं। लेकिन नस्ल का भेद यहां नहीं। रंग का है। शादियों में लड़का पूछता है कि दुल्हन गोरी है न। शादी के विज्ञापनों में लिखा होता है कन्या गौर वर्ण की है। ये एक और अति है। गौर वर्ण। मोरा गोरा रंग लई ले...मोहे श्याम रंग दई दे....रंगों का एक्सचेंज ऑफर है इस गाने में। मोरा श्वेत रंग लई ले नहीं है।

बाली उम्र मैं ये कैसा रोग

राजेश त्रिपाठी
कोटा। कच्ची उम्र के बच्चों में अपने साथियों के प्रति इस तरह के "घातक" आकर्षण से न केवल परिजन, बल्कि डॉक्टर भी चिन्तित हैं। जिस उम्र में बच्चों को सिर्फ पढ़ाई करनी होती है, उस दौरान इस तरह की गतिविधियों की कल्पना भी नहीं की जा सकती। कोटा में पिछले कुछ माह में ऎसी घटनाएं बढ़ी हैं। इस तरह के सामाजिक परिवर्तन से मनोचिकित्सक भी हैरान हैं। मनोचिकित्सकों के पास इस तरह के दो से तीन बच्चे औसतन हर सप्ताह उपचार के लिए पहुंच रहे हैं। इनमें बारह वर्ष तक के बच्चे भी शामिल हैं। लड़कों पर परिवार में कम नजर रखी जाती है, इसलिए उनके मामले कम सामने आते हैं। डॉक्टरों तक लड़कियों के मामले अधिक पहुंच रहे हैं।

ऎसे एक-दो बच्चे हर सप्ताह आ रहे हैं। उनके भेजे एसएमएस उनकी उम्र के अनुरूप नहीं होते। टीवी और फिल्मों का काफी असर है। बच्चों के कार्टून शो भी अब बच्चों की मानसिकता के अनुरूप नहीं हैं। उनमें काफी ऎसे दृश्य या सामग्री होती हैं, जिनका बाल मस्तिष्क पर बुरा असर पड़ता है। ये खतरनाक संकेत है।
-डॉ. भरतसिंह शेखावत, मनोचिकित्सक, एमबीएस अस्पताल

ऎसे चलता है पता

सामान्यत: ऎसे मामलों में बच्चे अपने माता-पिता का मोबाइल लेकर उसका उपयोग शुरू करते हैं। मोबाइल पर लंबी बात, मैसेज करना इत्यादि। मोबाइल का बिल अधिक आने पर परिजनों को इस तरह की गतिविधियों का पता चलता है। इसके बाद वे बच्चों से डांट-फटकार और अन्य तरीके इस्तेमाल करते हैं। बात नहीं बनती तो अनेक माता-पिता मनोचिकि त्सकों के पास ये कहकर पहुंचते हैं कि बच्चे का किसी ने "वशीकरण" कर दिया है। ऎसे मामले भी सामने आए, जिनमें बच्चे अपने दोस्त से रात भर फोन पर बात करते रहे या संदेश भेजते रहे।

शुक्रवार, 19 मार्च 2010

हर दूसरे दिन बिछुड़ी जिंदगी

राजेश त्रिपाठी
कोटा। "रूक जाना नहीं तू कहीं हार के, कांटों पर चलकर मिलेंगे साए बहार के..." शायद ही कोई हो, जिसे जिंदगी का ये फलसफा पता न हो, इसके बावजूद जिंदगी की राह में कुछ कदम डगमगाते ही लोग हताश होकर बैठ जाते हैं। पिछले दिनों शहर में इसी तरह निराश होकर 36 लोगों ने अपनी जीवन डोर खुद काट ली। वर्ष 2010 के शुरूआती 75 दिनों में हर दूसरे दिन एक व्यक्ति ने आत्मघाती कदम उठाया। मनोचिकित्सक इसे समाज में बढ़ती नकारात्मक सोच का प्रतिबिंब मानते हैं। पिछले दिनों आत्महत्या करने वाले सर्वाधिक लोग 21 से 35 वर्ष की उम्र के युवा थे।

घटी सहनशीलता

मेडिकल ज्यूरिष्ट डॉ. पी.के. तिवारी के अनुसार, आज के दौर में सहनशीलता घटी है। इसका एक कारण यही है कि लोग छोटी-छोटी बातें दिल से लगा लेते हैं। बुजुर्गो की डांट-फटकार, शिक्षकों की रोक-टोक को भी अपमानजनक समझा जाने लगा है। मामूली बात पर लोग मरने-मारने पर उतारू हो जाते हैं। परिवारिक समस्या, आर्थिक कारण और कामकाज का तनाव भी निराशाजनक वातावरण बनाने में सहायक सिद्ध होता है।

महिलाएं अधिक सहनशील

महिलाएं पुरूषों की तुलना में अधिक सहनशील होती हैं। आत्महत्या करने वाले 36 लोगों में 26 पुरूष हैं। युवा वर्ग में धैर्य कम होता है, इसीलिए 16 से 20 वर्ष की आयु के आत्महत्या करने वाले 8 जनों में पचास फीसदी महिलाएं थी, जबकि 21 से 35 वर्ष के 19 लोगों में 33 फीसदी ही महिलाएं थी। 35 वर्ष से अधिक उम्र की महिलाएं अधिक सहनशील साबित हुई।

यूं काटी जिंदगी की डोर

आयुवर्ग कितने पुरूष महिला
16 से 20 08 04 04
21 से 35 19 06 13
35 से 50 06 06 00
51 से अधिक 03 03 00
परिजन ध्यान रखें
"परिवार के किसी सदस्य को निराश देखें तो उसे संबल दें। अधिकांश मामलों में परिवार के लोग समय रहते सकारात्मक व्यवहार करें तो कई लोगों को आत्महत्या करने से रोका जा सकता है। अधिकांश मामलों में लोग पढ़ाई के तनाव, प्रेम संबंध और बीमारी से तंग हो कर जान देते हैं।"-लक्ष्मण गौड़, अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक

समस्या है तो समाधान भी

जान देना किसी भी समस्या का समाधान नहीं हो सकता, बल्कि इससे तो समस्याएं बढ़ती हैं। कोई भी समस्या स्थायी नहीं होती। वक्त के साथ सब ठीक हो जाता है। समस्या है तो विचार करें, कोई ना कोई रास्ता अवश्य निकल आएगा। धैर्य नहीं खोएं। कई बार परिवारों में जिद भी इसका कारण बन जाती है।

परिवारों की आर्थिक समस्या और पढ़ाई में अपेक्षाएं पूरी नहीं होने पर परिजनों को बच्चों पर दबाव नहीं डालना चाहिए। दबाव में बच्चों की योग्यता प्रभावित होती है।-डॉ. डी.के. शर्मा, विभागाध्यक्ष, मनोचिकित्सा विभाग, मेडिकल कॉलेज

बुधवार, 17 मार्च 2010

कोन अधिक तकलीफ देह



इंसानी रिश्तों की संभावनाएं अनंत हैं और उनमें छिपी आशंकाएं भी। ये कई तरह से और कई रुपों में हमारे आसपास मौजूद रहती हैं। कई बार जानकारी में तो कई बार अनजाने में ही सही। कई रिश्ते ऐसे होते हैं जो उसे जीने वालों को तो खुशी देते हैं लेकिन उनसे जुड़े दूसरों को तकलीफ। बनते, बिगड़ते, टूटते और फिर बनते रिश्तों के बीच ज़िंदगी जारी रहती है।

इन दो तस्वीरों को मेरे एक दोस्त ने ईमेल के ज़रिए भेजा है। इस प्रतीकात्मक तस्वीरों को आप भी देखिए और बताईये कि इसमें ज़्यादा तकलीफ़देह कौन-सी होगी! या ये भी... कि दोनों ही तस्वीरें स्वाभाविक हैं...तकलीफदेह नहीं!

अमेरिका का नेशनल फ्लैग मेड इन चाईना...!


ऐसा शायद हम तिरंगे के साथ नहीं कर सकते। ये तिरंगे का अपमान माना जाएगा। ये अमेरिका में ही संभव है। इन तस्वीरों को ग़ौर से देखिए। ये अमेरिका का राष्ट्रीय ध्वज है। लेकिन बना कहां है? मेड इन चाईना! जी हां। ये तस्वीर 5 नवबंर की हैं। नई दिल्ली स्थित अमेरिकन इंफोर्मेशन सेंटर की जहां ओबामा की जीत का जश्न मनाया जा रहा था। पॉलीथीन के बने सैकड़ों झंडे लगाए गए थे। सब पर मेड इन चाईना का ऐसा ही मार्का लगा था। अपना राष्ट्रीय ध्वज चीन में बनवाने के पीछे की वजह साफ है। मानव श्रम की उपलब्धता से लेकर प्रदूषण निरोधी नीति तक... कई कारणों से अमेरिका जैसे विकसित देश को नहीं लगता कि ऐसे छोटे-छोटे कामों में अपना वक्त और ताक़त ख़र्च करें। सस्ता माल चीन से उठा लेते हैं। चाहे राष्ट्रीय ध्वज ही क्यों न हो!

सोमवार, 15 मार्च 2010

कम से कम इतना काम तो करना ही होगा.


अगर आप निजी संसथान में काम करते है तो ..............जी हाँ आप तैयार रहिया आपका मैनेजमेंट आप से कुछ इसी तरह के काम की उम्मीद करता है,

कितने लायन मारे..सांभा

कहते हैं मुगल सम्राट जहांगीर को सिंहों के शिकार का बड़ा शौक था । मगर ३९ साल की बादशाहत में उसने सिर्फ नवासी यानी ८९ सिंहों का शिकार किया । और एक रिपोर्ट के अनुसार एक ब्रिटिश अफसर ने अकेले ३०० से ज़्यादा शिकार किये । बाकी कसर हम आज़ाद भारत में पूरी कर रहे हैं । हमारे लिए विरासत बेचने और गाने की चीज़ हो गई है प्यारे ।

रविवार, 14 मार्च 2010

शुक्रवार, 12 मार्च 2010

आखिर क्यों बनू मैं लड़की

लड़की की दिखाई -- शादी से पहले भी भुगतना. पड़ता है अपमान
जीवन भर अपमान सहने के लिया या माँ बाप की इच्च्चाये पूरी करने की खातिर.

राजेश त्रिपाठी
कभी कभी पुरुषों को सोचना चाहिए कि एक स्त्री या लड़की उनके बारे में कैसी कल्पना करती होगी। पुरुषों के कल्पना लोक में लड़कियां आतीं रहती हैं। फिल्म के पर्दे से लेकर पड़ोस की खिड़की से। मैगज़ीन के कवर से लेकर रेलगाड़ी में सामने की सीट से। फिल्म और छपाई के ज़माने में लड़कियों के सौंदर्य की एक सार्वभौमिक अभिव्यक्ति बनाई गई। जिनकी पूर्ति के लिए कई लड़कियों ने मटके के पीछे खड़ी होकर शादी के लिए तस्वीरें खींचाईं। फोटो की फाइनल कॉपी से पहले स्टुडियो वाले ने प्रूफ की कॉपी बनाई। उसके बाद यह कॉपी न जाने कितने योग्य वरों के घरों में गई। नहीं मालूम कि योग्य वर ने इंकार करने के बाद उस लड़की के साथ अपने कल्पना लोक में क्या किया। नहीं मालूम की मटकी के पीछे और राजस्थानी घाघरा चोली में खड़ी लड़की की तस्वीर हाथ में आते ही लड़के की नज़र पहले कहां गई। इसका कोई सामाजिक शोध उपलब्ध नहीं है।

मेरे दोस्त के पिता जी ने एक योग्य वर के नखरे से तंग आकर खरी खोटी सुना दी थी। कोटा में किसी रिश्ते के अपने भाई की बेटी के लिए अगुवई में गए थे। लड़के वाले कैसी लड़की चाहिए पर वाम दलों की तरह सूची लंबी किए जा रहे थे। पिता जी की ज़ुबान फिसल गई या गुस्से में कह गए- पता नहीं। चिल्लाने लगे कि लड़का को हेमा मालिनी चाहिए तो लड़की को भी धर्मेंद्र जैसा हैंडसम लड़का मिलना चाहिए। आपका बेटा इंजीनियर ही तो है। शक्ल देखिये इसकी। पतलून में बेल्ट लगाने नहीं आता, बाल में तेल है और कमीज़ की कोई फिटिंग तक नहीं। और आप हमारी लड़की में गुण ढूंढ रहे हैं। शादी करेंगे या नहीं। पिताजी बोल तो गए मगर शादी नहीं हुई। लड़के वाले इस बात को स्वीकार नहीं कर सके कि योग्य वर के बारे में योग्य दुल्हन की भी कोई कल्पना होगी?

ऐसे कई प्रसंगों में मैं खुद भी मौजूद रहा हूं। जहां लड़के वालों ने लड़कियों को ड्राइंग रूम में चला कर देखा कि चलती कैसी हैं। कभी चश्में का नंबर पूछा गया तो कभी लड़के की बहन ने लड़की की आंख को घूर से देखा कि कहीं कांटेक्ट लेंस तो नहीं लगा है। यह प्रक्रिया शादी के बाद भी जारी रहती है जब शादी के बाद घर आई दुल्हन की मुंहदिखाई के लिए लोग आते हैं। घूंघट उठा कर देखते हैं और सौ दो सौ रुपया दे जाते हैं। मैंने कई औरतों को देखा है कि दुल्हन की घूंघट उठाई और बोलते रह गईं। किसी ने वहीं कह दिया कि फलां कि बहू जैसी खूबसूरत है। बस इस तुलना से दुल्हन की तौहिन हुई सो अलग, वहीं बवाल मच गया। खैर ऐसे आयोजन को अंग्रेजी में रिसेप्शन कहते हैं। हिंदी में प्रीतिभोज।

यही देखते हुए बड़ा हुआ था। कई बार रिश्तेदारों को पिछले दरवाज़े से जाते हुए देखा था। किसी को पता न चले कि लड़की दिखाने ले जा रहे हैं। बदनामी के डर से कि इनकी बेटी बार बार छंट जा रही है। इस खौफ से कई अनर्गल और अवांछित रिश्तेदारों का मान मनौव्वल करते रहते थे कि कहीं वे उन जगहों पर जाकर बेटी के बारे में शिकायत न कर दें। शादी न कट जाए। यही जुमला चलता था। नहीं बैठा मामला? रिश्तेदार कोई अनजाने नहीं बल्कि अपने ही मामा चाचा हुआ करते थे। हर दिखाई के बाद जब पड़ोस की चाची पूछती थीं तो पूरा परिवार तुरंत झूठ बोलने लगता था। अपनी बहनों की भलाई के लिए। कोई नहीं कहता कि लड़के वाले ने देखा है। कुछ लोग यही गिनते रहते थे कि कितनी बार छंटाई हुई है। हालत ये भी हो जाते है की कुछ रिश्तेदार कहने लगते है की जिन लडको ने तुम्हारी लड़की को रिजेक्ट किया हो उनके पते हमें दे दो. हम उनसे जा कर निवेदन कर लेंगे. बेटी का बाप होना जैसे कोई सजा है,जिस से भी मिलो हाथ जोड़ कर मिलो नीचे सुर में ही आवाज निकले
यही देखते देखते कुछ और बड़ा हुआ। इतना कि मेरी कल्पनाओं में लड़कियां आने लगी थीं। किस रूप में आती थी उस पर बहस फिर कभी। लेकिन कभी कोई लड़की गुज़र जाए तो बहनें या पड़ोस की चाचियां ही कह देती थी कि सुंदर है..राजेश की दुल्हन ऐसी ही होगी। लंबी, गोरी और काले बालों वाली। मैं भी सुन लेता था। कान बंद करने का कोई उपाय नहीं होता था। मगर अच्छा नहीं लगता था। क्योंकि दुल्हन देखने के रस्मों की कड़वाहट ज़हन में उतर गई थी।

कोटा स्टेशन के पास हनुमान मंदिर में पड़ोस की चाची की एक बेटी को स्कूटर पर बिठा कर ले गया था। मुझे यह काम इसलिए सौंपा गया कि किसी को शक न हो। मेरी ऐसी साख बन गई थी मोहल्ले की लड़कियों के बीच। लोगों को लगे कि कहीं कोचिंग सेंटर छोड़ने ले जा रहा होगा। मेरा एक काम यह भी था। इसलिए किसी को शक नहीं होता था। उस दिन मैं उस लड़की को हनुमान मंदिर ले गया था। चाची ने कह दिया था धीरे धीरे चलाना। शुभ काम है। मैं भी लगता था कि कितना बड़ा काम मिला है, कर ही देना है। हनुमान मंदिर। वहां लड़के वाले आ चुके थे। उसे देखने। चाची रिक्शे से पहुंची थीं। अलग से। लड़के ने लड़की को देखना शुरू किया। उसकी नज़रों को मैंने देखना शुरू कर दिया। वो कहां कहां देख रहा है। कहां ज्यादा रूक रहा है।मोहल्ले के फिल्मी भाई की तरह गुस्सा भी आया।लेकिन भला उसी का था, चाची के सर से बोझ उतरना था इसलिए चुप भी रहना था। वो मेरी बहन नहीं थी इसलिए सर उठा कर देख रहा था।अपनी बहनों के वक्त तो नज़र नीचे ही रहती थी। इसी से कई लोगों को लगा कि मैं सीधा हूं।अच्छा लड़का हूं।खैर पहली बार देखा कि मर्द कैसे लड़की को देखता है।साला सामान ही समझता है।और कुछ नहीं।बाद में
उस लड़की को स्कूटर के पीछे बिठा कर घर ला रहा था।रास्ते भर सोचता रहा कि कितना अपमान है।लड़की नहीं होना चाहिए। पहली बार मुझे यह पता चला था कि लड़कों की नज़रें गंदी हो सकती हैं। बुरा या गंदी पता नहीं। अच्छाई के विरोध में तब शब्द भी कम होते थे। उस लड़के ने पसंद नहीं किया। क्या पता किसी और को हनुमान के सामने घूर रहा होगा? पता नहीं।

हिंदुस्तान के लड़के बदसूरत, बेढंग और बेहूदे होते हैं। लड़कियां तो सज कर कुछ बेहतर से बहुत बेहतर लगती रहती हैं। लड़कों के पास नौकरी न हो और समाज में शादी का चलन न हो तो मेरा यकीन है कि लाखों की संख्या में लड़के कुंवारे रह जाते। शाहरूख ख़ान सिक्स पैक बना रहा है तो मुझे ठीक लगता है। सारे लड़कों को नौकरी के अलावा इस लायक तो होना ही चाहिए कि किसी लड़की की कल्पना लोक में आ सके। वर्ना मैंने शादी से पहले सैंकड़ों मौके देखे हैं जब लड़कियों को लड़कों के सामने दिखाया गया है। एक भी मौके पर किसी भी लड़की ने लड़के की तरफ नज़र उठा कर नहीं देखा। कभी नहीं देखा कि लड़के ने भी लड़की के लिए तस्वीर खिंचाई है। सूट में। स्टुडियो वाले से टाई लेकर। यकीन न हो तो कोटा के सिद्धू स्टुडियो जाकर पूछ लीजिएगा। यह स्टुडियो स्थानीय स्तर पर लड़कियों की ऐसी तस्वीर तो बना ही देता था कि पहले राउंड में क्लियर हो जाए। और लड़के वाले अपने ड्राइंग रूम में या हनुमान मंदिर में उसे देखने के लिए बुला लें। लड़कियों के सामने लड़कों की तस्वीरों का विकल्प कभी नहीं रहा। क्या पता उन्हें भी लगता हो इंजीनियर ही तो है। जीवन काटना है। हां कह देंगे तो मां बाप है हीं मेरी तरफ से हां कहने के लिए।

मुझे फैशन से चिढ़ है। मेक अप से चिढ़ है। लेकिन जब पढ़ता हूं कि पुरुषों के सजने संवरने का कारोबार हज़ार करोड़ का हो रहा हो तो कभी कभी खुशी होती है। बीते दिनों की ख़राशों पर इसी बात से मरहम लगती होगी। जब मेरी एक दोस्त ने कहा कि शाहरूख इज़ हॉट तो सुनकर अच्छा लगा। एक बार लड़कियों की नज़रे लड़कों को नापने लगे तो कस्बे से लेकर महानगरों के कुंवारे इंजीनियरों, डाक्टरों और एमबीए लड़कों के होश उड़ने लगेंगे। वो भी सिक्स पैक बनाने लगेंगे। बल्कि बना ही रहे हैं।

गुरुवार, 11 मार्च 2010

खोया खोया चांद

प्रेमी चांद पर बहुत भरोसा करते हैं। कभी चांद को महबूब तो कभी महबूब को चांद बना देते हैं। पता नहीं यह रिश्ता कब से बनता चला आ रहा है। इस दुनिया में प्रेमियों ने अपनी अभिव्यक्तियों की लंबी विरासत छोड़ी है। जिसमें चांद स्थायी भाव से मौजूद है। कोई बात नहीं कर रहा हो तो हाल-ए- दिल सुनने सुनाने के लिए चांद है। वो कल्पना भी अजब की रही होगी की महबूब चांद को देख महबूबा को याद किया करते होंगे। पता नहीं दुनिया के किस पहले प्रेमी ने सबसे पहले चांद में अपनी महबूबा का दीदार किया। किसने सबसे पहले देखा कि चांद देख रहा है उसके प्रेम परिणय को।

बालीवुड का एक गाना बहुत दिनों से कान में बज रहा है। मैंने पूछा चांद से कि देखा है कहीं..मेरे प्यार सा हसीं..चांद ने कहा नहीं..नहीं। यानी चांद गवाह भी है। वो सभी प्रेमियों को देख रहा है। तुलना कर रहा है कि किसकी महबूबा अच्छी है। और किसकी सबसे अच्छी। पता नहीं इस प्रेम प्रसंग में चांद मामा कैसे बन जाता है। जब इनके बच्चे यह गाने लगते हैं कि चंदा मामा से प्यारा...मेरा...। क्या चांद महबूबा का भाई है? क्या प्रेमी महबूबा के भाई से हाल-ए-दिल कहते हैं? पता नहीं लेकिन चांद का भाव स्थायी है। अनंत है।

सूरज में कितनी ऊर्जा है। मगर वो प्रेम का प्रतीक नहीं है। क्या प्रेम में ऊर्जा नहीं चाहिए? चांदनी की शीतलता प्रेम को किस मुकाम पर ले जाती है? तमाम कवियों ने चांद को ही लेकर क्यों लिखा? कुछ गीतकारों ने जाड़े की धूप में प्रेम को बेहतर माना है लेकिन सूरज से रिश्ता जोड़ना भूल गए। धूप के साथ छांव का भी ज़िक्र कर देते हैं। यानी प्रेम में सूरज अस्थायी है। चांदनी का कोई विकल्प नहीं। कई कवियों की कल्पना में प्रेमी चांदनी रात में नहाने भी लगते हैं। पानी से नहीं, चांदनी से। अजीब है चांद।हद तो तब हो जाती है जब प्रेमी चांद से ही नाराज़ हो जाते हैं कि वह खोया खोया क्यों हैं? क्यों नहीं उनकी तरफ देख रहा है? प्रेमी अपने एकांत में चांद को भी स्थायी मान लेते हैं। चांद है तभी एकांत है। चांद पर इतना भरोसा कैसे बना, कृपया मुझे बताइये। कोई शोध कीजिए। कोई किताब लाइये। मुझे चांद चाहिए।

प्रणाम सर

कई लोगों ने सर सर कह कर मुझे पका दिया है। अचानक सर संबोधन में आई वृद्धि से परेशान हो गया हूं। पहले जब लोगों ने जी संबोधन का इस्तमाल किया तो तनिक विरोध के बाद छोड़ दिया। लगा कि जी से उम्र ही अधिक लगती है वर्ना समस्या खास नहीं है। सर ने सर खपा दिया है। कई लोग अब जी की जगह सर लगाने लगे हैं। ऐसा भी नहीं कि मैं कोई बड़ा अफसर हो गया हूं। होता भी तो इसकी ख्वाहिश तो बिल्कुल ही नहीं है।

सर क्या है? नाम के बाद आने वाला एक ऐसा सामंती उपकरण जो आपको कई लोगों से अलग करता है। इंसान सर संबोधन से इतना प्रभावित क्यों हैं? जब तक इसका इस्तमाल नहीं करता, उसे लगता ही नहीं कि सामने वाले को इज्जत बख्शी है। क्या सर के बिना सम्मान का कांसेप्ट नहीं होता है? करें क्या? मैं इनदिनों बहुत परेशान हूं। अब सुन कर उल्टी होती है। कहने वाले को समझाता हूं मगर मानते ही नहीं। सर और जी से बड़ा सरदर्द कुछ नहीं होता। मुझे यह समझ नहीं आ रहा है जो लोग साथ काम करते थे वो भी सर लगा देते हैं। मज़ाक की भी हद होती है। कई बार जब कहने को कुछ भी नहीं होता तब भी सर लगा देते हैं। कैसे हैं सर? क्या सर के बिना कैसे हैं का वाक्य पूरा नहीं होता? जिस तरह मुंबई में बीएमसी ने थूकने पर फाइन लगा दिया है उसी तरह दफ्तरों में सर संबोधन पर फाइन की व्यवस्था होनी चाहिए? क्या आप भी सर संबोधन से परेशान है? क्या आप इस परेशानी को दूर करने वाले किसी हकीम को जानते हैं? मैं उसकी पुड़िया सर संबोधन कार्यकर्ताओं को खिलाना चाहता हूं। ताकि यह मर्ज जड़ से गायब हो जाए।

ब्लॉग साहित्य

हिंदी लेखन पठन का यह साल ब्लाग लेखन पठन के काल के रूप में जाना जाएगा। यही वो साल रहा जिसमें सैंकड़ों ब्लागर पैदा हुए। तमाम अख़बारों में ब्लागोदय की चर्चा हुई। ब्लाग साहित्य माना जाए या नहीं..इस पर कुछ लोग मायूस नज़र आए। पता नहीं वो क्यों एक मरती हुई विधा की तरह होना चाहते हैं? ब्लागविधा एक नई प्रक्रिया है। आने वाले समय में साहित्य तकनीकी माध्यमों से अवतरित होगा। जिस तरह प्रकाशन ने साहित्य को सुलभ किया उसी तरह ब्लाग साहित्य को पूरे विश्व में एक ही समय में सुलभ करा रहा है। साहित्य को एक नया माध्यम मिला है। तो यह पूरा साल हिंदी ब्लागरों के नाम पर रहा। इसी साल गूगल हिंदी बोलने लगा। इंटरनेट पर हिंदी के लोग अचानक उभरे और कानपुर से लेकर इटली तक आपस में बात करने लगे, बहस करने लगे और बात नहीं करने की धमकी देने लगे। कई तरह के एग्रीगेटर आए। नारद की ऐतिहासिक भूमिका बनी रही। ब्लाग पर तरह तरह के प्रयोग भी हुए। ब्लाग से संबंध बने तो खराब भी हुए। इसलिए यह साल ब्लागईयर के नाम से जाना जाएगा।

रविवार, 7 मार्च 2010

यहाँ भी है भेंस पानी और बचपन


भैस पर बैठा बच्चा बिहार की पहचान बन गया है.वह भैसों और सवारों का अनुपात बिहार में कैसा है ये तो पता नहीं.लेकिन कोटा में अब भेंसो की पीठ खाली है, कोटा आया यहाँ कोई ठाकरे भी नहीं है.

गर एक दोस्त मिल जाये तेरे जैसा.

हरियाणा की रुचिका गिरहोत्रा मामले का राज़ आज सबको पता नहीं होता अगर अराधना उसकी दोस्त न होती। उन्नीस साल तक अराधना अपनी दोस्त रुचिका के इंसाफ के लिए लड़ती रही। इस दौरान उसने अपनी दोस्त को भी खो दिया। एस पी एस राठौर पुलिस की ताकत का इस्तमाल करता रहा लेकिन अराधना हार नहीं मानी। अमन के साथ शादी के बाद अराधना का मुल्क बदल गया। वो आस्ट्रेलिया और सिंगापुर रहने लगी। इसके बाद भी अराधना अपनी बचपन की दोस्त रुचिका के साथ हुई नाइंसाफी को नहीं भूली। उसके इंसाफ के लिए लड़ती रही। चौदह-पंद्रह साल की उम्र की यह दोस्ती। हम सब इस उम्र में दोस्तों को ढूंढते हैं। घर से बाहर निकलने की बेकरारी होती है। किसी और से जुड़ कर दुनिया और खुद को समझने की तड़प। उम्र के इस पड़ाव पर लगता है कि अगर दोस्त पक्का है तो जीवन में बहुत कुछ अच्छा है। हम सब के जीवन में इस उम्र के आस-पास बहुत सारे दोस्त बनते हैं और बदलते हैं क्योंकि सब एक दूसरे में सच्चा दोस्त ढूंढते हैं। रुचिका ने अराधना में जो दोस्त ढूंढा, उसे अराधना ने साबित कर दिया। अपने मां-बाप से इस मामले को अदालत तक ले जाने की दरख्वास्त की। अराधना के पति ने बताया कि वो अपनी कंपनी से बहाने बनाकर ऑस्ट्रेलिया से चंडीगढ़ आते थे, ताकि मुकदमें की सुनवाई के वक्त मौजूद रहे। अराधना के जज़्बे को अमन ने भी समझा। अमन ने कभी अराधना को अकेले नहीं आने दिया। राठौड़ कुछ भी कर सकता था। यह पूरा मामला आज पूरी दुनिया के सामने है क्योंकि इसमें एक सच्चे दोस्त और अच्छे जीवनसाथी की बहुत ही सक्रिय भूमिका रही है।यही मौका है एक बार फिर से समझने के लिए कि आम हिंदुस्तानी घरों में लड़कों से संस्कार की उम्मीद कम सफलता की ही आशा ज़्यादा की जाती है। उसे नहीं सिखाया जाता कि लड़कियों को किस नज़र से देखना है। सारी तालीम लड़कियों को दी जाती है कि लड़कों की नज़र से कैसे बचें। अगर लड़के को बचपन से ही यह सीखाया जाए कि लड़कियों के साथ सामान्य बर्ताव कैसे करें तो बड़े होने पर या सत्ता हासिल होने पर राठौर जैसे हिंसक और वहशी तत्व उसके भीतर पनप नहीं सकेंगे। अपने दोस्तों के बीच इस मुद्दे को लेकर खुल कर बात करनी चाहिए। कब तक हमारे शहरों में लड़के छेड़खानी करने के लाइसेंस लिये घूमते रहेंगे। सोच कर डर लगता है कि राठौर के इस अपराध में कितने पुलिस वालों ने साथ दिया। राठौर की वकील पत्नी ने भी साथ दिया। वो लोग कैसे आज अपनी बेटियों का सामना कर रहे होंगे जिन्होंने राठौड़ की मदद की और रुचिका के पिता सुभाष गिरहोत्रा और उसके भाई को तड़पाया। रुचिका की कहानी सामाजिक रिश्तों के दरकने और दोस्ती के बचे रह जाने की कहानी है। दोस्तों की कीमत समझने की कोशिश कीजिए। ये रिश्ता सिर्फ हंसी मज़ाक का नहीं है बल्कि उस बुरे दौर का भी बंधन है जब सारे लोग आपके खिलाफ हो जाते हैं। इसीलिए किशोरों पर दोस्तों का प्रभाव बहुत ज़्यादा होता है। अराधना ने एक बार फिर से इस दोस्ती को गौरवान्वित किया है।फेसबुक में सैंकड़ों अनजाने लोगों से कनेक्ट होने से तो अच्छा है कि एक अराधना मिल जाए। वो कोई राहुल भी हो सकता है। इस उम्र में हम भी अपने दोस्तों की चीज़ों को अपना समझते थे। किसी की कमीज़ पहन लेते थे तो किसी को अपना जूता दे देते थे। साझा करने का आनंद दोस्त की तलाश पूरी करता है। अब लगता है कि दोस्तों के बीच भावनात्मक संबंध कमज़ोर पड़ रहे हैं। दफ्तरों की गलाकाट प्रतियोगिता दोस्तों को प्रतियोगी बना रही है। पुराने दोस्त या तो कहीं छूट गए या फिर भूल गए। दोस्ताना,याराना,दोस्ती, दिल चाहता है जैसी फिल्मों को देखकर लगता रहा कि काश ऐसी दोस्ती हमारे हिस्से भी होती। पुरानी फिल्मों में दोस्त का किरदार एकदम भावुक होता था। उससे उम्मीदें होती थीं। उसकी बेरुखी दिल तोड़ देती थी। संगम फिल्म का गाना दोस्त दोस्त न रहा और दोस्ताना का गाना-मेरे दोस्त किस्सा ये क्या हो गया सुना है कि तू बेवफा हो गया,याराना का गाना- तेरे जैसा यार कहां...कहां ऐसा याराना,ऐसे गाने पीढ़ियों तक दोस्ती की छवि गढ़ते रहे। आजकल की फिल्मों के दोस्त मौज मस्ती के होते हैं। प्रैक्टिकल होते हैं। इसीलिए दिल चाहता है दोस्ती के संबंधों को आज के संदर्भ में देखने वाली आखिरी फिल्म थी। वैसे तो बाद में न्यूयार्क और दोस्ताना भी आई। लेकिन अराधना का असली किस्सा अब दोस्ती के किस्सों का सबसे बड़ा किरदार बन गया है। अपने आप से पूछिये क्या आपके पास अराधना जैसी दोस्त है।

आखिर क्यों बने मूर्ति रक्षा दल जब ऐसे अनुयाई हो.

आरा से यह तस्वीर दीपक कुमार के सौजन्य से प्राप्त हुई है। जयप्रकाश नारायण की मूर्ति है। जन्मशति के मौके पर उनके अनुयायी आस्था व्यक्त कर रहे हैं। जयप्रकाश नारायण के जितने भी सत्ताधारी चेले हुए वो सब फटीचर गति को प्राप्त हुए लेकिन तस्वीर में दिख रहे लोग पता नहीं क्यूं जेनुइन मालूम पड़ते हैं। इसी खौफ से बहन कुमारी मायावती मूर्ति रक्षा दल बना रही हैं ताकि इस तरह के दिन न देखने पड़े। लेकिन उन्हें भी समझना चाहिए,जब तक इस तरह के अनुयायी बचे रहेंगे,मूर्ति का बचाखुचा कोई भी हिस्सा आस्था व्यक्त करने के काम आता रहेगा। मुझे यह तस्वीर ग़ज़ब की लगी। इस मूर्ति के नीचे से किसी भी प्रकार के लोकतांत्रिक विचार आ जा सकते हैं। दो खंभों पर खुद को टिकाने का ही तो जेपी ने प्रयोग किया था। दो तरह के विचारों को भी।

शुक्रवार, 5 मार्च 2010

अब दलित नाम की माया

राजनाथ सिंह भी अब दलितों के घर खाने लगे हैं। राहुल गांधी तो खा ही रहे हैं। आजकल दलित फूड काफी चल निकला है। पोलिटिकली। पंजाब के उभार के दिनों में जब वहां के ट्रक ड्राईवर देशाटन पर निकलें तो पंजाबी ढाबा खुल गए। अब दलित ढाबा और दलित रिसोर्ट खोलने का टाईम आ गया है। दलित व्यंजन। मेनू में दलित नेताओं के नाम पर रखें जायें। फूले फुल्का। अंबेडकर आचार। मायावती मलाई। कांशीराम ककड़ी। शाहू पनीर। इन महापुरुषों के नाम पर बने इन व्यंजनों को तभी परोसा जाए जब खाने वाला कोई नेता इनकी एक किताब पढ़ ले। दलित ढाबे में बनाने वाले भी दलित होंगे। जो खायेगा उसे मैनेजर के साथ फोटे खिंचवा कर दिया जाएगा ताकि वे अपनी पार्टी के नेताओं को दिखा सकें। वहां पर सारे महापुरुषों की मूर्तियां भी लग सकती हैं। हर महापुरुष के हिसाब से उनके इलाके का व्यंजन हो। ये भी एक आइडिया हो सकता है। यानी अगर आप देश भर के सभी दलित महापुरुषों के इलाके का व्यंजन खा लें तो बड़े पोस्ट के दावेदार हो सकते हैं। दलित रिसोर्ट अच्छा आइडिया है। इसमें आप स्विमिग पूल में नहाने से लेकर शराब पीने की व्यवस्था हो और दलित चिंतन के एक्सपर्ट बुला कर लंबे लंबे भाषण सुनायें जायें। फिर अगले दिन दोपहर उनका टेस्ट हो और पास हो जाएं तो सर्टिफिकेट मिले। यह लिखा हुआ कि अमुक शर्मा ने पांच प्रकार के दलित व्यंजनों का किया है और पांच किस्म के विशेषज्ञों का भाषण भी सुना। बोर्ड लगा दे कि हमारे यहां दलित भोजन का उत्तम प्रबंध है। उचित दर की दुकान। खाने पीने को लेकर दलित आत्मविश्वास वैसे ही नहीं झलकता है। मेरी एक परिचित हैं जो होटल चलाती हैं। उनसे कहा कि आप पर स्टोरी करूंगा तो महिला ने कहा कि लोग जान जायेंगे तो खाना खाने नहीं आएंगे।


शुरू में तो ये भोजन विश्राम यात्रा ठीक लगी लेकिन अब यह दलितों को जानने के अलावा नौटंकी लगने लगी है। इसलिए नहीं कि ठाकुर राजनाथ सिंह भी खाने लगे हैं बल्कि इसलिए कि हो क्या रहा है। राजनाथ सिंह कब से दलितों के बारे में बात करने लगे। एक तरफ वो दलितों के घर खाना खाते हैं और दूसरी तरफ कहते हैं कॉमनवेल्थ गेम्स में बीफ मत परोसो। उन्हें खाने के संस्कारों की विविधता के बारे में कुछ नहीं मालूम। वो धर्म और जाति की राजनीति का कॉकटेल अब तो न बनायें। चार साल तक बीजेपी के अध्यक्ष रहते हुए तो कुछ किया नहीं। अब फोटोकॉपी पोलिटिक्स कर रहे हैं।


लेकिन क्या यह ठोस उपाय है? सारे गांवों की बसावट जात के आधार पर है। बहुत पहले मैंने इस ब्लॉग पर लिखा भी था कि गांवों की पारंपरिक बसावट को ध्वस्त कर दिया जाए और एक नया मास्टर प्लान बने। गांवों में इस तरह से घरों को बसाया जाए ताकि एक घर पंडित का हो और दूसरा दलित का, उसका पड़ोसी ठाकुर का। वैसे भी सरकार इंदिरा आवास योजना के तहत गरीबों के लिए घर बनवाती ही है। कई सरकारी योजनाएं हैं जिनके तहत गांवों में गरीबों के लिए घर बनते हैं। इन घरों को गांव के किसी छोर पर न बनाया जाए। आज भी इंदिरा आवास के घर दलितों की बस्ती में ही बनते हैं। ये चलन तुरंत बंद होना चाहिए। इंदिरा आवास के तहत सभी जाति के गरीबों को घर मिले। जब तक हम बसावट में मिलावट नहीं करेंगे, दलितों को जानने के लिए उनकी बस्तियों में जाते ही रह जाएंगे। अलग से जाकर नौटंकी करने की ज़रूरत न पड़े इसलिए गांवों की बसावट को ध्वस्त करने की योजना पर काम करना चाहिए। बवाल होगा तो होगा। ठाकुर साहब का घर एक छोर पर और जाटव जी का एक छोर पर नहीं चलेगा।

लेबल असली, दवा नकली

राजेश त्रिपाठी
कोटा। अस्पतालों में बीमारियों से जूझ रहे गंभीर रोगियों को "जिंदगी" देने वाली दवा भी उनकी जिंदगी को "खतरा" पैदा कर सकती है। गत वर्ष कोटा में जब्त हुई एंटीबायोटिक दवा जांच में "नकली" साबित हुई। संभवत: कोटा में अब तक का ये पहला मामला है। जिंदगी के दुश्मन "असली" की आड़ में "नकली" दवा बेचकर "चांदी" कूट रहे हैं। हो सकता है कि अभी भी ये नकली दवाएं बाजार में धड़ल्ले से बिक रही हों! हुआ यूं कि औषधि नियंत्रण विभाग की ओर से गत वर्ष एमबीएस अस्पताल में जब्त एंटीबायोटिक दवा हाल ही आई जांच रिपोर्ट के अनुसार सरकारी प्रयोगशाला में "नकली" निकली है। दरअसल जो दवा लिखी गई थी, उसी का लेबल शीशी पर लगा था, लेकिन शीशी के अंदर कोई और दवा निकली। औषधि नियंत्रण विभाग ने कार्रवाई के लिए जयपुर के औषधि नियंत्रक से अनुमति मांगी है। रिपोर्ट आने के बाद दवा विक्रेताओं में भी हड़कम्प मचा हुआ है।
ये था मामला
अस्पताल के ईएनटी वार्ड में बारां जिले के नारायणपुरा गांव निवासी सत्यनारायण पांचाल का कान का ऑपरेशन हुआ था। ऑपरेशन से पूर्व 31 जुलाई 2009 को विभागाध्यक्ष के निर्देश पर कंपाउण्डर द्वारा लिखी दवाइयां परिजनों ने नयापुरा स्थित आदित्य मेडिकल स्टोर से खरीदी। दवाओं में ब्रांडेड इंजेक्शन "आईक्यू जिड" भी था। एक अगस्त को ऑपरेशन के बाद वार्ड नर्स ने नकली होने की आशंका जताते हुए इंजेक्शन लगाने से इनकार कर दिया। बाद में औषधि निरीक्षक ने जांच के लिए दवा का सैंपल लिया था।
ये थी गड़बड़ी
दवा की शीशी के लेबल के अनुसार दवा में सेप्टीजाइडिम साल्ट होना चाहिए था, लेकिन जांच में सेप्ट्रामऑक्सिन साल्ट पाया गया। दोनों एंटीबायोटिक हैं, लेकिन गुणवत्ता में काफी अंतर है। जांच में ऎसा माना गया कि दवा कंपनी में नहीं बनी। सारा हेरफेर कोटा में ही किया गया।
कूट रहे चांदी
नकली दवाओं के इस खेल में दवा विक्रेताओं व अन्य लोगों की मिलीभगत से इनकार नहीं किया जा सकता। लोगों के स्वास्थ्य से खिलवाड़ करते हुए ये लोग "चांदी" कूटने में लगे हुए हैं। सेप्टीजाइडिम की वायल 290 रूपए की आती है और सेप्ट्रामऑक्सिन की वायल 30 रूपए की। यानि रोगी को 30 रूपए की दवा 290 रूपए में बेच दी जाती है। कई बार इन दवाइयों से रोगी को गंभीर नुकसान भी हो जाता है, लेकिन इसकी परवाह किसे है।
कब-कब आए नकली दवा के मामले
* 2007 में पुलिस ने शिवपुरा के एक मकान से नकली के संदेह में दवाएं जब्त की। मामले में पुलिस ने बाद में रूचि नहीं ली।
* 22 जुलाई 2009 में एंटीबायोटिक दवा के नकली होने के संदेह में एमबीएस अस्पताल में हंगामा।
* 2 अगस्त 2009 एमबीएस के ईएनटी वार्ड से नकली होने के संदेह में दवा जब्त की।
* औषधि नियंत्रण विभाग ने अभियान चला कर जनवरी में कोटा संभाग में 15 दवाओं के सैंपल लिए।
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यह दवा नयापुरा स्थित आदित्य मेडिकल स्टोर से खरीदी गई थी, जो जांच में नकली पाई गई। दुकान के संचालक उपेन्द्र पारेता के खिलाफ अदालत में चालान पेश करने की औषधि नियंत्रण कार्यालय से अनुमति शीघ्र मिलने की आशा है।-देवेन्द्र गर्ग, औषध निरिक्षका

ये है इरफ़ान की नज़र..........




बुधवार, 3 मार्च 2010

थ्री इटियॉटिक

साढ़े चार स्टार्स की फ़िल्म देख रहा था। तारे छिटकते थे और फिर कहीं कहीं जुड़ जाते थे। साल की असाधारण फिल्म की साधारण कहानी चल रही थी। चार दिनों में सौ करोड़ की कमाई का रिकार्ड बज रहा था और दिमाग के भीतर कोई छवि नहीं बन पा रही थी। थ्री इडियट्स की कहानी शिक्षा प्रणाली को लेकर हो रही बहसों के तनाव में कॉमिक राहत दिलाने की सामान्य कोशिश है। कामयाबी काबिल के पीछे भागती है। संदेश किसी बाबा रणछोड़दास का बार बार गूंज रहा था। पढ़ाई का सिस्टम ख़राब है लेकिन विकल्प भी बहुत बेकार। इसी ख़राब सिस्टम ने कई प्रतिभाओं को विकल्प चुनने के मौके दिये हैं। इसी खराब सिस्टम ने लोगों को सड़ा भी दिये हैं। लेकिन यह टाइम दूसरा है। हम विकल्पों के लिए तड़प रहे हैं। लेकिन क्या हम वाकई विकल्प का कोई मॉडल बना पा रहे हैं? सवाल हम सबसे है। मद्रास प्रेसिडेंसी में सबसे पहले इम्तहानों का दौर शुरू हुआ था। अंग्रेजों ने जब विश्वविद्यालय बनाकर इम्तहान लिये तो सर्वण जाति के सभी विद्यार्थी फेल हो गए। उसी के बाद पहली बार थर्ड डिविज़न का आगमन हुआ। हिंदुस्तान में सर्टिफिकेट आधारित प्रतिभा की यात्रा यहीं से शुरू होती है। डेढ़ सौ साल से ज़्यादा के इतिहास में परीक्षा को लेकर हमने एक समाज के रूप में तनाव की कई मंज़िलें देखी हैं। ज़िला टॉपर और पांच बार मैट्रिक फेल अनुभव प्राप्त प्रतिभावान और नाकाबिल हर घर परिवार में रहे हैं। दिल वाले दुल्हनियां ले जायेंगे में अनुपम खेर अपने खानदान के सभी मेट्रिक पास या फेल पूर्वजों की तस्वीरें लगा कर रखते हैं। शाह रूख खान को दिल की सुनने के लिए भेज देते हैं। पंद्रह साल पहले आई यह कहानी सुपरहिट हो जाती है। अनुपम खेर शाहरूख खान से कहते है कि जा तू मेरी भी ज़िंदगी जी कर आ। शिक्षा व्यवस्था से भागने के रास्ते को लेकर कई फिल्में बनीं हैं। भागने के कई रास्ते भी हैं।थ्री इडियट्स फिल्म पूंजीवादी सिस्टम को रोमांटिक बनाने का प्रयास करती है। काबिलियत पर ज़ोर से ही कामयाबी का रास्ता निकलता है। काबिल होना पूंजीवादी सिस्टम की मांग है। रणछोड़ दास का विकल्प भी किसी अमेरिकी कंपनी की कामयाबी के लिए डॉलर पैदा करने की पूंजी बन जाता है। कामयाबी के बिना ज़िंदा रहने का रास्ता नहीं बताती है यह फिल्म। शायद ये किसी फिल्म की ज़िम्मेदारी नहीं होती। उसका काम होता है जीवन से कथाओं को उठाकर मनोरंजन के सहारे पेश कर देना। ताकि हम तनाव के लम्हों में हंसने की अदा सीख सकें। बीसवीं सदी के शुरूआती दशकों में ही प्रेमचंद की कहानी आ गई थी। बड़े भाई साहब। इम्तहान सिस्टम पर बेहतरीन व्यंग्य। बड़े भाई साहब अपने छोटे भाई साहब को नए सिस्टम में ढालने के बड़े जतन करते हैं। छोटा भाई कहता है कि इस जतन में वो एक साल के काम को तीन तीन साल में करते हैं। एक ही दर्जे में फेल होते रहते हैं। लिहाजा खेलने-कूदने वाला छोटा भाई हंसते खेलते पास होने लगात है और बड़े भाई के दर्जे तक पहुंचने लगते हैं। कहानी में बड़े भाई का संवाद है। गौर कीजिएगा। "सफल खिलाड़ी वह है,जिसका कोई निशाना खाली न जाए। मेरे फेल होने पर न जाओ। मेरे दरजे में आओगे, तो दांतों पसीना आ जाएगा। जब अलजेबरा और ज्योमेट्री के लोहे के चने चबाने पड़ेंगे. इंग्लिस्तान का इतिहास पढ़ना प़ड़ेगा। बादशाहों के नाम याद रखना आसान नहीं, आठ-आठ हेनरी हुए हैं। कौन सा कांड किस हेनरी के समय में हुआ, क्या यह याद कर लेना आसान समझते हो। हेनरी सातवें की जगह हेनती आठवां लिखा और सब नंबर गायब। सफाचट। सिफर भी न मिलेगा,सिफर भी। दर्जनों तो जेम्स हुए हैं,दर्जनों विलियम,कौड़ियों चार्ल्स। दिमाग चक्कर खाने लगता है।"भारतीय शिक्षा प्रणाली को लेकर ऐसे किस्से इसके आगमन से ही भरे पड़े हुए हैं। प्रेमचंद की यह कहानी बेहतरीन तंज है। उस वक्त का व्यंग्य है जब इम्तहानों का भय और रूटीन आम जीवन के करीब पहुंच ही रहा था। थ्री इडियट्स की कहानी तब की है जब इम्तहानों को लेकर देश में बहस चल रही है। एक सहमति बन चुकी है कि नंबर या टॉप करने का सिस्टम ठीक नहीं है। दिल्ली के सरदार पटेल में कोई टॉपर घोषित नहीं होता। किसी को नंबर नहीं दिया जाता। ऐसे बहुत से स्कूल हैं जहां मौजूदा खामियों को दूर किया गया है या दूर करने का प्रयास हो रहा है। इसी साल सीबीएसई के बोर्ड में नंबर नहीं दिये जायेंगे। उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश में बोर्ड के इम्तहानों में करीब बीस लाख से ज़्यादा बच्चे फेल हो गए थे।इन सभी हकीकतों के बीच आमिर की यह फिल्म एजुकेशन के सिस्टम को कॉमिक में बदल देती है। जो मन करो वही पढ़ो। यही आदर्श स्थिति है लेकिन ऐसा सिस्टम नहीं होता। न पूंजीवाद के दफ्तर में और न कालेज में। अभी तक कोई ठोस विकल्प सामने नहीं आया है। प्रतिभायें कालेज में नहीं पनपती हैं। यह एक मान्य परंपरा है। थ्री इडियट्स मौजूदा सिस्टम से निकलने और घूम फिर कर वहीं पहुंच जाने की एक सामान्य फिल्म है। जिस तरह से तारे ज़मीन पर मज़ूबती से हमारे मानस पर चोट करती है और एक मकसद में बदल जाती है,उस तरह से थ्री इडियट्स नहीं कर पाती है। चंद दोस्तों की कहानियों के ज़रिये गढ़े गए भावुकता के क्षण सामूहिक बनते तो हैं लेकिन दर्शकों को बांधने के लिए,न कि सोचने के लिए मजबूर करने के लिए। फिल्मों के तमाम भावुक क्षण खुद ही अपने बंधनों से आजाद हो जाते हैं। जो सहपाठी आत्महत्या करता है उसका प्लॉट किसी मकसद में नहीं बदल पाता। दफनाने के साथ उसकी कहानी खतम हो जाती है। कहानी कालेज में तीन मसखरों की हो जाती है जो इस सिस्टम को उल्लू बनाने का रास्ता निकालने में माहिर हैं। ऐसे माहिर और प्रतिभाशाली बदमाश हर कालेज में मिल जाते हैं। चेतन भगत की दूसरी किताब पढ़ी है। टू स्टेट्स। थ्री इडियट्स की कहानी अगर पहली किताब फाइव प्वाइंट्स समवन से प्रभावित है तो यह साबित हो जाता है कि फिल्म आईआईटी में गए एक कामयाब लड़के की कहानी है जो आईआईटी के सिस्टम को एक नॉन सीरीयस तरीके से देखता है। चेतन भगत का इस विवाद में उलझना बताता है कि उसकी कहानियों का यह किरदार लेखक एक चालू किस्म का बाज़ारू आदमी है। क्रेडिट और पैसा। दोनों बराबर और ठीक जगह पर चाहिए। विधू विनोद चोपड़ा का जवाब बताता है कि कामयाबी के लिए क्या-क्या किये जा सकते हैं। परदे पर चेतन को क्रेडिट मिली है।लेकिन कितनी मिली है उसे ईंची टेप से नापा जाना बताता है कि फिल्म अपने मकसद में कमज़ोर है। इसीलिए इस फिल्म की कहानी लगान और तारे ज़मीं पर जैसी नहीं है। हां दोस्ती के रिश्तों को फिर से याद दिलाने की कोशिश ज़रूर है। आमिर खान किसी कहानी में ऐसे फिट हो जाते हैं जैसे वो कहानी उन्हीं के लिए बनी हो। कहानी इसलिए अपनी लगती है क्योंकि कंपटीशन अब एक व्यापक सामाजिक दायरे में हैं। शिक्षा और उससे पैदा होने वाली कामयाबी का विस्तार हुआ है। हम भी कामयाब हैं और आमिर भी कामयाब है। पहले ज़िले में चार लोग कामयाब होते थे,अब चार हज़ार होते हैं। मेरे ही गांव में ज़्यादातर लोगों के पास अब पक्के के मकान है। पहले तीन चार लोगों के होते थे। कामयाबी के सार्वजनिक अनुभव के इस युग में यह फिल्म कई लोगों के दिलों से जुड़ जाती है।भारत महान के प्रखर चिंतकों के लेखों में एक कामयाब मुल्क बनने की ख्वाहिश दिखती है। बीसवीं और इक्कीसवीं सदी का भारत या अगले दशक भारत का। भारत एक मुल्क के रूप में चीन और अमेरिका से कंपीट कर रहा है। ज़ाहिर है नागरिकों के पास विकल्प कम होंगे। सब रेस में दौ़ड़ रहे हैं। आत्महत्या करने वालों की कोई कमी नहीं है। दिमाग फट रहे हैं। सिस्टम क्रूर हो रहा है। काश थ्री इडियट्स के ये किरदार मिलकर इसकी क्रूरता पर ठोस प्रहार करते। लेकिन ये क्या। ये तीनों कहानी की आखिर में लौटते हैं कामयाब ही होकर। अगर कामयाब न होते तो कहानी का मामूली संदेश की लाज भी नहीं रख पाते। बड़ी सी कार में दिल्ली से शिमला और शिमला से मनाली होते लद्दाख। साधारण और सिर्फ सर्जनात्मक किस्म के लोगों की कहानी नहीं हो सकती। ये कामयाब लोगों की कहानी है जो काबिल भी हैं। कामयाब चतुर रामालिंगम भी है। दोनों अंत में एक डील साइन करने के लिए मिलते हैं। एक दूसरे को सलामी ठोंकते हैं। थोड़ा मज़ा भी लेते हैं। वो सिस्टम से बगावत नहीं करते हैं,एडजस्ट होने के लिए टाइम मांग लेते हैं। सिस्टम का विकल्प नहीं देती है यह फिल्म। न ही तारे ज़मीं की तरह सिस्टम में अपने किरदार के लिए जगह देने की मांग करती है। मनोरजंन करने में कामयाब हो जाती है। शायद किसी फिल्म के लिए यही सबसे बड़ा पैमाना है। साढ़े चार स्टार्स की फिल्म।नोट- ज़ुबी डूबी गाना रेट्रो इफेक्ट देता है। ओम शांति ओम से लेकर रब ने बना दी जोड़ी तक में ऐसे प्रयोग हो चुके हैं। इससे पहले भी कई फिल्मों में रेट्रो इफेक्ट के ज़रिये पुरानी फिल्मों के क्लिशे को हास्य को बदला जा चुका है। गाना बेहद अच्छा है।

अपराध का नारीवाद.


क्या आप देख रहे है गुलाम नबी आजाद

कहा गए डॉक्टर सारे......अब दर्ज्जी की दूकान पर होगा बवासीर का इलाज.