मंगलवार, 19 जुलाई 2011

रविवार, 17 जुलाई 2011

53 साल बाद मिला प्रेमिका का प्रेम पत्र !



अमरीका में एक छात्रा ने अपने प्रेमी को वर्ष 1958 में प्रेम पत्र लिखा था, लेकिन यह प्रेम पत्र 2011 में उसके प्रेमी के पास पहुंचा है। विडम्बना यह है कि यह खत ऎसे वक्त पहुंचा है जब उक्त प्रेमी जोड़ा विवाह बंधन में बंधने के बाद तलाक ले चुका है।

यह प्रेम पत्र इसी महीने पेंसिलवेनिया विश्वविद्यालय में पहुंचा था। यह प्रेम पत्र क्लार्क सी मूर के नाम लिखा गया था, लेकिन इस शख्स ने बाद में अपना नाम बदलकर मोहम्मद सिदिक रख लिया था।

सिदिक के एक मित्र ने यह खबर टीवी पर देखने के बाद विश्वविद्यालय कार्यालय से सम्पर्क किया। सिदिक अब 74 वर्ष के हो चुके हैं। वह इस प्रेम पत्र को पढ़ने की उत्सकुता जाहिर कर चुके हैं। हालांकि अब उन्होंने अपनी प्रेमिका से तलाक ले लिया है।

कैलीफोर्निया के पेंसिलवेनिया विश्वविद्यालय में यह प्रेम पत्र अभी 10 दिनों पहले ही पहुंचा है। मूर को लिखे गए दो पृष्ठ वाले इस पत्र को 20 फरवरी 1958 को पोस्ट किया गया था।

सिदिक अब सेवानिवृत हो चुके हैं और अब इंडियानापोलिस शहर में रहते हैं। उन्होंने कहा कि वह उस समय चकित रह गए जब विश्वविद्यालय ने उनसे सम्पर्क किया।

सिदिक ने यूएस टीवी को बताया, अमरीका में ऎसी व्यवस्था है कि यदि आपके लिए कुछ है तो वह आपको जरूर मिलेगा। यह काफी सुखद है। उन्होंने कहा कि वह और उनकी प्रेमिका कॉलेज के दिनों में एक दूसरे को प्रेम पत्र लिखा करते थे। बाद में दोनों ने शादी की और उनके चार बच्चे भी हुए। अब दोनों के बीच तलाक हो गया है।

शनिवार, 16 जुलाई 2011

बुढ़ापे का बजट


चालीस के पास रिटायर होना चाहें तो कहां निवेश करें। आज कल निवेश निवेदन कार्यक्रमों में ऐसे सुझाव आते रहते हैं। बुढ़ाने से पहले ही बुढ़ापे का इंतज़ाम। हमने अपने बुज़ुर्गों को उनकी जवानी में परेशान होते हुए नहीं देखा है। वो पूरी जवानी अपने बाल बच्चों को पढ़ाने लिखाने, शादी करने और बाकी बचे पैसे से मकान बनाने में ही खपे रहे। उन्होंने कोई जीवन बीमा की कोई पालिसी नहीं खरीदी। न ही म्यूचुअल फंड खरीदा। वो अपना फर्ज़ पूरा करते रहे। एक जोखिम के साथ जीते रहे कि कोई न कोई बाल बच्चा पूछ ही लेगा। अपनी ज़रूरतें कितनी हैं, दवा दारू का इंतज़ाम हो जाए बस बाकी ज़िंदगी कट जाएगी।

लेकिन अब ऐसा नहीं है। आप जवानी के साथ साथ बुढ़ापे का भी इंतज़ाम कर रहे हैं। रिटायरमेंट प्लान खरीद रहे हैं। मेडिकल इंश्योरेंस करवा रहे हैं। आप जानते हैं कि बुढ़ापा आपका बोझ होने वाला है। बच्चों का नहीं होगा। बच्चे अपनी जवानी का बोझ उठाने में मशगूल रहेंगे। अब बाप अकेला है। पहले उसके पास कई लोग होते थेँ। हालांकि तब भी बाप को यह खतरा होता था कि बेटा नहीं पूछेगा तो क्या होगा। यही दिलासा देते रहते थे कि जो भी पेंशन मिलेगा काम चल जाएगा। बुढ़ा-बुढ़ी हरिद्वार जाकर ज़िंदगी काट लेंगे। ऐसे बचे खुचे बुज़ुर्गों को कोई बता देता कि हरिद्वार में प्रोपर्टी प्राइस बढ़ गया है। वहां यूं ही जाकर बुढ़ापे का गुज़ारा नहीं किया जा सकता। हरिद्वार में जाना एक निवेश है। जिसके लिए आपको रामदेव के आश्रम के पास बन रहे हाउसिंग कालोनी में फ्लैट बुक कराना होगा। जिनका नाम स्वर्गाश्रम, हैवन एन्क्लेव होता है।

हमारा समाज और हम हर दिन बदल रहे हैं। वैसे बाप को, जिनके दो चार बच्चे हैं, तनाव से गुज़रना पड़ रहा है। क्योंकि इनके बच्चे अपने बुढ़ापे के लिए जीवन बीमा की पालिसी खरीद रहे हैं। इनके पास बाप के बुढ़ापे के लिए कोई पैसा नहीं है। हाल ही में दिल्ली के एक बाप ने अपने बच्चों पर मुकदमा कर दिया। अदालत ने भी बेटों से कमाई का हिसाब किताब मांगा है। जवानी के तूफान में हम उम्र की हकीकत को नहीं देख पाते।

सर्वे में कहा जाता है कि भारत की आबादी युवा हो रही है। फिर भी लोग बुढ़ापे की पालिसी की जमकर मार्केंटिंग कर रहे हैं। उन्हें बुढ़ापे का भय दिखा रहे हैं। एक तरह से बता रहे हैं कि आपने जिस तरह अपने बाप को नहीं पूछा, या पूछा तो देख लिया होगा कि कितना महंगा होता है, बुढ़ापे में बाप का ख्याल रखना। इसलिए आप रिटायरमेंट पालिसी खरीद लीजिए। क्योंकि आपके पास इतने सारे बच्चों के आप्शन नहीं होंगे। डर लगता है। हम इस नश्वर जीवन को कितना कंक्रीट बनाएंगे। रिश्ते बनाने निभाने की पालिसी नहीं है। अपना अपना गुज़ारा करने के लिए तमाम पालिसी है। इतना ही नहीं बुढ़ापे को भी रंगीन बनाया जा रहा है। कहा जा रहा है कि अगर पालिसी खरीदी होगी तो साठ साल के बाद विदेशों का भ्रमण कीजिए, माल में शौपिंग कीजिए और रेस्त्रां में खाना खाइये। बुढ़े लोगों की दुनिया भी बदल रही है। बदलेगी ही। जो नौजवान जवानी भर सिर्फ अपने बुढ़ापे के लिए बचत करता रहा, उसके पास पैसा तो होगा ही। और वो पैसा कहां खर्च होगा। लिहाज़ा उसे भी खर्च कराने के तमाम पालिसी निकल रही हैं। भाई साहब बीमाओं का बुढ़ापा कब आएगा। एक चक्र लगता है जिसमें जवानी में आप फंसते हैं और बुढ़ापे में उलझ जाते हैं।

शुक्रवार, 15 जुलाई 2011

बोल के लब आज़ाद हैं तेरे

वो नहीं बोलते हैं तो ख़बर है। बोलते हैं तो ख़बर है। लोकतंत्र में कोई प्रधानमंत्री बोलने जा रहा है, यह भी ख़बर है। ख़बर कम है। लोकतंत्र का अपमान ज़्यादा। क्या आप मान सकते हैं कि प्रधानमंत्री को बोलने नहीं आता है। फिर वो क्लास में अपने छात्रों को कैसे पढ़ाते होंगे। अधिकारियों के साथ मीटिंग करते वक्त तो बोलते ही होंगे। अपनी राय तो रखते ही होंगे। यह कैसे हो सकता है कि दुनिया भर के अनुभवों वाला एक शख्स रबर स्टाम्प ही बना रहे। विश्वास करना मुश्किल होता है। कोई ज़बरदस्ती चुप रह कर यहां तक नहीं पहुंच सकता। कुछ तो उनकी अपनी राय होगी,जिससे उनके धीमे सुर में ही सही बोलते वक्त लगता होगा कि आदमी योग्य है। वर्ना मुंह न खोलने की शर्त पर उनकी योग्य छवि कैसे बनी। मालूम नहीं कि ज़िद में आकर मनमोहन सिंह नहीं बोलते या उन्हें बोलने की इजाज़त नहीं है। दोनों ही स्थिति में मामला ख़तरनाक लगता है।

जिस मनमोहन सिंह की मुख्यधारा की मीडिया ने लगातार तारीफ़ की हो अब उन्हीं की आलोचना हो रही है। यूपीए वन में उनकी चुप्पी को लोग खूबी बताया करते थे। कहा करते थे कि ये प्रधानमंत्री भाषण कम देता है। दिन भर काम करता है। देर रात तक काम करता है। यूपीए वन के वक्त लोकसभा में विश्वासमत जीतने के बाद बाहर आकर विक्ट्री साइन भी बनाता है। जीत के उन लम्हों को याद कीजिए,फिर आपको नहीं लगेगा कि मनमोहन सिंह चुप रहने वाले शख्स होंगे। संपादकों की बेचैनी का कोई मतलब नहीं है। उन्हें बेवजह लगता है कि प्रधानमंत्री उनसे बात नहीं करते। इसलिए कई संपादकों ने लिखा कि वे बात क्यों नहीं कर रहे हैं। सवाल यही महत्वपूर्ण है कि कई मौकों पर प्रधानमंत्री देश से संवाद क्यों नहीं करते? अपना लिखित बयान भी जारी नहीं करते। अगर सवाल-जवाब से दिक्कत है तो लिखित बयान भी नियमित रूप से जारी किये जा सकते थे। जनता स्वीकार कर लेती। कहती कि अच्छा है प्रधानमंत्री कम बोलते हैं मगर बोलते हैं तो काम का बोलते हैं। लिखित बोलते हैं। यह भी नहीं हुआ। जबकि प्रधानमंत्री के पास मीडिया सलाहकार के रूप में एक अलग से दफ्तर है। क्या ये लोग यह सलाह देते हैं कि सर आप मत बोलिये। अगर सर नहीं बोल रहे हैं तो मीडिया सलाहकार तो बोल ही सकते हैं। कोई चुप रहने की सलाह दे रहा है या कोई न बोलने का आदेश,दावे के साथ कहना मुश्किल है मगर समझना मुश्किल नहीं।

लेकिन यह भी समझना चाहिए कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह हमारी आपकी तरह किसी कंपनी की नौकरी नहीं कर रहे। देश के सबसे बड़े पद पर आसीन हैं। उसे छोड़ भी देंगे तो करदाताओं के पैसे से सरकार उन्हें ससम्मान रखेगी। वो एक बार पूरे टर्म प्रधानमंत्री रह चुके हैं। उनकी मजबूरियां समझ नहीं आतीं। कोई वजह नहीं है। तो क्या मान लिया जाए कि उन्हें किसी चीज़ से मतलब नहीं हैं। लोकतांत्रिक प्रक्रिया में यकीन नहीं है। जो मन करेगा, करेंगे। जो मन करेगा, नहीं बोलेंगे। हठयोग पर हैं मौनी बाबा। इनके गुरु रहे हैं पूर्व प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव। वो भी नहीं बोलते थे। कल उनका जन्मदिन था। मनमोहन सिंह आंध्र भवन गए थे जहां नरसिम्हा राव की याद में कुछ कार्यक्रम हुआ था। जिस राव को कांग्रेस में कोई पसंद नहीं करता, उससे रिश्ता निभाने का सार्वजनिक प्रदर्शन करने वाले मनमोहन सिंह के बारे में क्या आप कह सकते हैं कि वे दब्बू हैं। लगता नहीं है। उन्हें लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में विश्वास कम है। शायद इसीलिए वे पिछले साल सितंबर के बाद आज के दिन देश के पांच संपादकों से मिलेंगे। टीवी वालों से नहीं मिला। पिछली बार फरवरी में न्यूज़ चैनलों के संपादकों,संवाददाताओं से मुलाकात की थी। इस बार लंबी चुप्पी के बाद टीवी को पहले चांस नहीं मिला। वो इस डर से भी कि अगर ऐसा हुआ तो टीवी वाले दिन भर बवाल काटेंगे। हर भाव, हर मुद्रा पर चर्चा कर डालेंगे। कुल मिलाकर मनमोहन सिंह की एक कमज़ोर छवि ही निकलेगी। अब अखबार के संपादकों से सवाल तो यही सब पूछे जायेंगे। यही कि क्या मनमोहन सिंह आहत हैं? क्या कहा उन्होंने न बोलने के फैसले पर? क्या वो देश के काम में लगे हैं? अगर दिन रात काम में ही लगे हैं तो देश की हालत ऐसी क्यों हैं? जनता फटीचर हालत में क्यों हैं?

क्या यह शर्मनाक नहीं है कि कांग्रेस की कार्यसमिति में प्रधानमंत्री के सामने उनके सहयोगी राजनेता यह सुझाव दें कि आप बोला कीजिए। आप कम बोलते हैं। या तो आप राष्ट्र के नाम संदेश दे दें या फिर मीडिया से बात कर लें। अभी तक विपक्ष ही बोलता था कि प्रधानमंत्री नहीं बोलते हैं। अब उनकी पार्टी के लोग ही बोलने लगे हैं। हद है ये तो बोलते ही नहीं हैं। तो क्या यह दलील पूरी तरह सही है कि वे पार्टी के दबाव में नहीं बोलते हैं। फिर पार्टी के लोग यह मांग क्यों करते हैं? फिर उनके सहयोगी गृहमंत्री पी चिदंबरम एनडीटीवी की सोनिया वर्मा सिंह के इंटरव्यू में खुलेआम बोलकर जाते हैं कि चुप रहना उनका स्टाइल है मगर मुझे भी लगता है कि प्रधानमंत्री को कुछ ज्यादा संवाद करना चाहिए। थक हार कर जब वे नहीं बोले तो सरकार ने मीडिया से बोलने के लिए पांच मंत्रियों का समूह बना दिया। पिछले रविवार अर्णब गोस्वामी के वर्सेस कार्यक्रम में आउटलुक के संपादक विनोद मेहता ने सलमान खुर्शीद की क्लास ले ली। कह दिया कि इन पांच मंत्रियों ने अन्ना के मामले में जिस तरह से मीडिया को हैंडल किया है वो पब्लिक रिलेशन के कोर्स में डिज़ास्टर के रूप में पढ़ाया जाना चाहिए। ज़ाहिर है प्रधानमंत्री पर दबाव कम है। दबाव की बातों में अतिशयोक्ति है। नहीं बोलने का उनका फैसला अपना है। ज़िद है। वर्ना बोलने को लेकर विवाद इसी महीने से तो नहीं शुरू हुआ न। वो तो कॉमनवेल्थ के समय से ही चल रहा है।

मनमोहन सिंह को लगता ही नहीं कि लोकतंत्र में संवाद ज़रूरी है। इसलिए वो नहीं बोलते हैं। पिछले कुछ महीनों से कई बड़े संपादकों ने शनिचर-एतवार के अपने कॉलमों में इसकी आलोचना की और सुझाव दिये कि कैसी सरकार है। न काम कर पा रही है न बोल पा रही है। सिर्फ चली जा रही है। अटल बिहारी वाजपेयी तो चलते-चलते बात कर लेते थे। अटलजी-अटलजी की आवाज़ आती थी,वो प्रेस की तरफ मुड़ जाते थे। कुछ तंज,कुछ रंज और कुछ व्यंग्य कर के चले जाते थे। वो छोटे-मोटे समारोहों में भी जाते रहते थे। वहां कुछ न कुछ बोल आते थे। हर साल शायद पहली तारीख को उनके विचार आ जाते थे। अटल म्यूज़िंग। कितना बोलें और कब बोलें,यह प्रधानमंत्री का अपना फैसला होना चाहिए। मगर कभी बोलेंगे ही नहीं तो इस पर जनता को फैसला कर लेना चाहिए। पिछले पंद्रह साल के मीडिया कवरेज का इतिहास निकालिये। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के हिस्से में सिर्फ तारीफ ही आई है। पिछले पंद्रह महीनों के मीडिया कवरेज का इतिहास निकाल कर देखिये,मनमोहन सिंह के हिस्से में सिर्फ आलोचना ही आई है। हमारा समाज चुप रहने वालों को धीर गंभीर कहता है मगर यहां तो मनमोहन सिंह इतने चुप हो गए कि अब लोग इस चुप्पी को अड़ना समझने लगे हैं।

हमारी नाकामी के धमाके

आम तौर पर माना जाता है कि आतंकी अपने हमलों की जगह बदलते रहते हैं, तो फिर ये सवाल उठना लाजिमी है कि भारत की वित्तीय राजधानी मुंबई पर बार-बार आतंकी हमले क्यों हो रहे हैं? 26 नवंबर 2008 की रात पाकिस्तान से समुद्री रास्ते से आए महज 10 आतंककारियों ने मुंबई पर जो हमला बोला था, उसके बाद मुंबई में यह आतंकी विस्फोटों की पहली वारदात है। मुंबई में भीड़भाड़ वाली तीन जगह बुधवार शाम करीब 7 बजे लगभग एक साथ किए गए आतंकी बम विस्फोट में कितने लोग मरे और कितने घायल हुए ये आंकड़े अभी स्थिर नहीं हुए हैं, लेकिन लोग यह पूछने लगे हैं कि मुंबई और खासकर झवेरी बाजार पर क्यों होते हैं बार-बार आतंकी हमले? कहीं यहां होने वाला बड़ा वाणिज्यिक कारोबार ही इसकी जान की आफत तो नहीं बन गया है?

केन्द्रीय गृह सचिव, गृह मंत्री और मुख्यमंत्री के बयानों में व्याप्त तथ्यपरक अंतर यह संकेत देता है कि हमारे देश में शासकों की तथ्य संकलन टीम में कोई सामंजस्य नहीं है। जब सरकारी सूचनाओं में अराजकता है, तो मीडिया में भी यह कमोबेश झलकता ही है। आतंकी हमलों के बारे में सरकार कितनी सतर्क है, यह इस तथ्य से पता चलता है कि इस तरह के हमलों में शामिल गिरोहों-संगठनों के इलाकों को आज तक हम खोज नहीं पाए और अगर हम ऎसे दुश्मन संगठनों के अड्डों को जान भी रहे हैं, तो उन पर हमला बोलने की हमारी हिम्मत नहीं है। हमारे पास उनके सायबर कम्युनिकेशन को हमले से पहले ही पकड़ने की क्षमता नहीं है। मुंबई पर हमला करने वाले कहां गए पुलिस नहीं जानती?

दुर्भाग्यपूर्ण है कि ये वारदात तब हुआ, जब केंद्र सरकार और उसके अफसर केंद्रीय मंत्रिमंडल के विस्तार के बाद के बंदोबस्त और संसद के 1 अगस्त से शुरू होने जा रहे मानसून सत्र की तैयारी में लगे हुए हैं और पूरा देश भ्रष्टाचार के मामलों से उद्वेलित है। यह भी गौरतलब है कि मुंबई के इन आतंकी विस्फोटों पर हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का बयान साढ़े तीन घंटे बाद रात 10.35 पर आता है। अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा के बयान के महज 15 मिनट पहले! हम इतने सुस्त क्यों नजर आते हैं? धमाकों के अगले दिन दिल्ली से मुंबई पहुंचे केंद्रीय गृह मंत्री पी. चिदंबरम ने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण की उपस्थिति में एक प्रेस कॉन्ंफ्रे न्स में माना कि यह आतंकी हमला है। मरने वालों की संख्या बढ़ सकती है। अब तक 18 लोगों की जान गई और 131 घायल हुए हैं। घायलों में से 23 की हालत चिंताजनक है।

चिदंबरम के अनुसार, ये धमाके समन्वित आतंककारी कार्रवाई हैं। उन्होंने यह सवाल टाल दिया कि इसके लिए कौन जिम्मेदार है। उन्होंने कहा कि हालांकि इन हमलों के बारे में कोई पूर्व खुफिया सूचना नहीं थी, लेकिन इसे गुप्तचर एजेंसियों की विफलता नहीं मान सकते। यह कोई नई बात नहीं, अपनी विफलता स्वीकार करने में सरकारें हमेशा से पीछे रही हैं? तीन में से दो धमाके दक्षिण मुंबई के अत्यधिक भीड़भाड़ वाले झवेरी बाजार और ऑपेरा हाउस इलाके में हुए। शहर के सबसे व्यस्त और पुराने इलाकों में पसरे ये बाजार संकरी गलियों में हैं, जिनमें दोनों ओर दुकानें हैं। ये बाजार सोना और हीरा कारोबार के केंद्र हैं। एक विस्फोट मारूति एस्टीम कार में हुआ और दूसरा विस्फोट मोटरसाइकिल में हुआ। तीसरा विस्फोट मध्य मुंबई में दादर के कबूतरखाना इलाके में एक बस स्टॉप सेल्टर पर हुआ, जहां काफी भीड़ होती है। जाहिर है, ये धमाके ज्यादा से ज्यादा नुकसान पहुंचाने की नीयत से किए गए थे। तीनों विस्फोट शाम 6.50 बजे से 7.05 बजे के बीच 15 मिनट के भीतर तब हुए, जब उन जगहों पर काम करने वाले ज्यादातर लोग अपने घर लौटने की तैयारी में लगे थे और उनमें से बहुतेरे खाने-पीने की दुकानों के आगे जमा थे। झवेरी बाजार में तो आतंकी धमाकों की यह तीसरी घटना है, जबकि कहा जाता है कि आतंकी अपना निशाना बदलते रहते हैं।

जैसा कि हमेशा होता है, विस्फोट के बाद महानगर में सुरक्षा बढ़ा दी गई है। रेलवे स्टेशन, सड़कों, हवाई अaों और अन्य संवेदनशील स्थानों पर पुलिस बंदोबस्त बढ़ा दी गई है। हमेशा की तरह मुख्यमंत्री ने मुआवजे का ऎलान किया है। घायलों के इलाज का पूरा खर्च राज्य सरकार ने उठाने का आश्वासन दिया है, लेकिन इन इंतजामों से क्या फर्क पड़ेगा? क्या अब विस्फोट नहीं होंगे? मूल सवाल तो यही है, जिसका जवाब लोग सरकार से चाहते हैं। धमाकों के पीछे देश में फले-फूले एक ऎसे आतंकी संगठन का हाथ होने का संदेह बढ़ रहा है, जो मुंबई में ही नहीं, देश के अन्य हिस्सों में भी इस तरह के हमलों के लिए दोषी रहा है। पुलिस के अनुसार सभी धमाकों में आईईडी का इस्तेमाल किया गया है, जो रिमोट कण्ट्रोल से करवाए गए विस्फोट से कुछ ही पहले लगाए गए थे।
दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दू कॉलेज के प्राध्यापक प्रो. ईश मिश्र ने मुंबई में आतंकी धमाकों की शाम गुजर जाने के बाद एक मार्मिक कविता लिखी है :

फिर आई खबर मुंबई में बम फटने की,
सैकड़ों निर्दोषों के मरने की, नहीं है यह कोई बात नई,
सदियों पहले इसकी शुरूआत हुई,
होता आ रहा है यह तब से, बारूद का ईजाद हुआ जब से, जिसके पास बारूद का जितना बड़ा जखीरा,
मारे उसने उतने ही इन्सान, लूटा सोना-चांदी-हीरा,
लूटता रहा संसाधन आमजनों का,
जारी है अभी भी उसका यह अभियान,
समझ चुका है बम का खेल आज का इन्सान,
खत्म कर देगा वह बम-गोलों का खेल,
इन्सानियत के उसूलों से है नहीं जिसका मेल,
बनाएगा ऎसी दुनिया फूले-फलेगी इन्सानियत जिसमें,
बम-गोलों से नहीं रहेगी वाकफियत उसमें।

गुरुवार, 14 जुलाई 2011

१३ जुलाई २०११ मुंबई इंसानियत के हत्यारे

ये है नेता
एक ओर मुम्बई सहित पूरा देश धमाकों के दर्द से उबरने की कोशिश में लगा है दूसरी ओर कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी ने मुम्बई हमले पर बचकाना बयान देकर अपनी राजनीतिक अपरिप`ता का परिचय दिया है। राहुल ने कहा कि देश पर हो रहे हर आतंकी हमले को रोक पाना मुमकिन नहीं है। राहुल के इस बयान ने नया विवाद खड़ा कर दिया है।

मुंबई में बुधवार को हुए सिलसिलेवार धमाकों पर सरकार का बचाव करते हुए राहुल गांधी ने इराक और अफगानिस्तान का उदाहरण देते हुए कहा कि आतंकी हमले किसी भी देश पर हो सकते हैं और हर आतंकी हमले को रोक पाना खुफिया एजेंसियों के लिए संभव नहीं है।

राहुल ने कहा कि "सरकार ने आतंक से निपटने के लिए पर्याप्त कदम उठाए हैं और पिछले कुछ सालों में हमारी खुफिया एजेंसियां और सुरक्षा तंत्र और मजबूत हुए हैं। लेकिन इन सभी के लिए हर हमले को रोक पाना मुमकिन नहीं है। उन्होंने कहा कि पुख्ता इंतजाम होने के बावजूद अमरीका जैसे देश पर भी हमले हो जाते हैं। "

बुधवार, 13 जुलाई 2011

मंगलवार, 12 जुलाई 2011

गुरुवार, 7 जुलाई 2011