शुक्रवार, 15 जुलाई 2011

बोल के लब आज़ाद हैं तेरे

वो नहीं बोलते हैं तो ख़बर है। बोलते हैं तो ख़बर है। लोकतंत्र में कोई प्रधानमंत्री बोलने जा रहा है, यह भी ख़बर है। ख़बर कम है। लोकतंत्र का अपमान ज़्यादा। क्या आप मान सकते हैं कि प्रधानमंत्री को बोलने नहीं आता है। फिर वो क्लास में अपने छात्रों को कैसे पढ़ाते होंगे। अधिकारियों के साथ मीटिंग करते वक्त तो बोलते ही होंगे। अपनी राय तो रखते ही होंगे। यह कैसे हो सकता है कि दुनिया भर के अनुभवों वाला एक शख्स रबर स्टाम्प ही बना रहे। विश्वास करना मुश्किल होता है। कोई ज़बरदस्ती चुप रह कर यहां तक नहीं पहुंच सकता। कुछ तो उनकी अपनी राय होगी,जिससे उनके धीमे सुर में ही सही बोलते वक्त लगता होगा कि आदमी योग्य है। वर्ना मुंह न खोलने की शर्त पर उनकी योग्य छवि कैसे बनी। मालूम नहीं कि ज़िद में आकर मनमोहन सिंह नहीं बोलते या उन्हें बोलने की इजाज़त नहीं है। दोनों ही स्थिति में मामला ख़तरनाक लगता है।

जिस मनमोहन सिंह की मुख्यधारा की मीडिया ने लगातार तारीफ़ की हो अब उन्हीं की आलोचना हो रही है। यूपीए वन में उनकी चुप्पी को लोग खूबी बताया करते थे। कहा करते थे कि ये प्रधानमंत्री भाषण कम देता है। दिन भर काम करता है। देर रात तक काम करता है। यूपीए वन के वक्त लोकसभा में विश्वासमत जीतने के बाद बाहर आकर विक्ट्री साइन भी बनाता है। जीत के उन लम्हों को याद कीजिए,फिर आपको नहीं लगेगा कि मनमोहन सिंह चुप रहने वाले शख्स होंगे। संपादकों की बेचैनी का कोई मतलब नहीं है। उन्हें बेवजह लगता है कि प्रधानमंत्री उनसे बात नहीं करते। इसलिए कई संपादकों ने लिखा कि वे बात क्यों नहीं कर रहे हैं। सवाल यही महत्वपूर्ण है कि कई मौकों पर प्रधानमंत्री देश से संवाद क्यों नहीं करते? अपना लिखित बयान भी जारी नहीं करते। अगर सवाल-जवाब से दिक्कत है तो लिखित बयान भी नियमित रूप से जारी किये जा सकते थे। जनता स्वीकार कर लेती। कहती कि अच्छा है प्रधानमंत्री कम बोलते हैं मगर बोलते हैं तो काम का बोलते हैं। लिखित बोलते हैं। यह भी नहीं हुआ। जबकि प्रधानमंत्री के पास मीडिया सलाहकार के रूप में एक अलग से दफ्तर है। क्या ये लोग यह सलाह देते हैं कि सर आप मत बोलिये। अगर सर नहीं बोल रहे हैं तो मीडिया सलाहकार तो बोल ही सकते हैं। कोई चुप रहने की सलाह दे रहा है या कोई न बोलने का आदेश,दावे के साथ कहना मुश्किल है मगर समझना मुश्किल नहीं।

लेकिन यह भी समझना चाहिए कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह हमारी आपकी तरह किसी कंपनी की नौकरी नहीं कर रहे। देश के सबसे बड़े पद पर आसीन हैं। उसे छोड़ भी देंगे तो करदाताओं के पैसे से सरकार उन्हें ससम्मान रखेगी। वो एक बार पूरे टर्म प्रधानमंत्री रह चुके हैं। उनकी मजबूरियां समझ नहीं आतीं। कोई वजह नहीं है। तो क्या मान लिया जाए कि उन्हें किसी चीज़ से मतलब नहीं हैं। लोकतांत्रिक प्रक्रिया में यकीन नहीं है। जो मन करेगा, करेंगे। जो मन करेगा, नहीं बोलेंगे। हठयोग पर हैं मौनी बाबा। इनके गुरु रहे हैं पूर्व प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव। वो भी नहीं बोलते थे। कल उनका जन्मदिन था। मनमोहन सिंह आंध्र भवन गए थे जहां नरसिम्हा राव की याद में कुछ कार्यक्रम हुआ था। जिस राव को कांग्रेस में कोई पसंद नहीं करता, उससे रिश्ता निभाने का सार्वजनिक प्रदर्शन करने वाले मनमोहन सिंह के बारे में क्या आप कह सकते हैं कि वे दब्बू हैं। लगता नहीं है। उन्हें लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में विश्वास कम है। शायद इसीलिए वे पिछले साल सितंबर के बाद आज के दिन देश के पांच संपादकों से मिलेंगे। टीवी वालों से नहीं मिला। पिछली बार फरवरी में न्यूज़ चैनलों के संपादकों,संवाददाताओं से मुलाकात की थी। इस बार लंबी चुप्पी के बाद टीवी को पहले चांस नहीं मिला। वो इस डर से भी कि अगर ऐसा हुआ तो टीवी वाले दिन भर बवाल काटेंगे। हर भाव, हर मुद्रा पर चर्चा कर डालेंगे। कुल मिलाकर मनमोहन सिंह की एक कमज़ोर छवि ही निकलेगी। अब अखबार के संपादकों से सवाल तो यही सब पूछे जायेंगे। यही कि क्या मनमोहन सिंह आहत हैं? क्या कहा उन्होंने न बोलने के फैसले पर? क्या वो देश के काम में लगे हैं? अगर दिन रात काम में ही लगे हैं तो देश की हालत ऐसी क्यों हैं? जनता फटीचर हालत में क्यों हैं?

क्या यह शर्मनाक नहीं है कि कांग्रेस की कार्यसमिति में प्रधानमंत्री के सामने उनके सहयोगी राजनेता यह सुझाव दें कि आप बोला कीजिए। आप कम बोलते हैं। या तो आप राष्ट्र के नाम संदेश दे दें या फिर मीडिया से बात कर लें। अभी तक विपक्ष ही बोलता था कि प्रधानमंत्री नहीं बोलते हैं। अब उनकी पार्टी के लोग ही बोलने लगे हैं। हद है ये तो बोलते ही नहीं हैं। तो क्या यह दलील पूरी तरह सही है कि वे पार्टी के दबाव में नहीं बोलते हैं। फिर पार्टी के लोग यह मांग क्यों करते हैं? फिर उनके सहयोगी गृहमंत्री पी चिदंबरम एनडीटीवी की सोनिया वर्मा सिंह के इंटरव्यू में खुलेआम बोलकर जाते हैं कि चुप रहना उनका स्टाइल है मगर मुझे भी लगता है कि प्रधानमंत्री को कुछ ज्यादा संवाद करना चाहिए। थक हार कर जब वे नहीं बोले तो सरकार ने मीडिया से बोलने के लिए पांच मंत्रियों का समूह बना दिया। पिछले रविवार अर्णब गोस्वामी के वर्सेस कार्यक्रम में आउटलुक के संपादक विनोद मेहता ने सलमान खुर्शीद की क्लास ले ली। कह दिया कि इन पांच मंत्रियों ने अन्ना के मामले में जिस तरह से मीडिया को हैंडल किया है वो पब्लिक रिलेशन के कोर्स में डिज़ास्टर के रूप में पढ़ाया जाना चाहिए। ज़ाहिर है प्रधानमंत्री पर दबाव कम है। दबाव की बातों में अतिशयोक्ति है। नहीं बोलने का उनका फैसला अपना है। ज़िद है। वर्ना बोलने को लेकर विवाद इसी महीने से तो नहीं शुरू हुआ न। वो तो कॉमनवेल्थ के समय से ही चल रहा है।

मनमोहन सिंह को लगता ही नहीं कि लोकतंत्र में संवाद ज़रूरी है। इसलिए वो नहीं बोलते हैं। पिछले कुछ महीनों से कई बड़े संपादकों ने शनिचर-एतवार के अपने कॉलमों में इसकी आलोचना की और सुझाव दिये कि कैसी सरकार है। न काम कर पा रही है न बोल पा रही है। सिर्फ चली जा रही है। अटल बिहारी वाजपेयी तो चलते-चलते बात कर लेते थे। अटलजी-अटलजी की आवाज़ आती थी,वो प्रेस की तरफ मुड़ जाते थे। कुछ तंज,कुछ रंज और कुछ व्यंग्य कर के चले जाते थे। वो छोटे-मोटे समारोहों में भी जाते रहते थे। वहां कुछ न कुछ बोल आते थे। हर साल शायद पहली तारीख को उनके विचार आ जाते थे। अटल म्यूज़िंग। कितना बोलें और कब बोलें,यह प्रधानमंत्री का अपना फैसला होना चाहिए। मगर कभी बोलेंगे ही नहीं तो इस पर जनता को फैसला कर लेना चाहिए। पिछले पंद्रह साल के मीडिया कवरेज का इतिहास निकालिये। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के हिस्से में सिर्फ तारीफ ही आई है। पिछले पंद्रह महीनों के मीडिया कवरेज का इतिहास निकाल कर देखिये,मनमोहन सिंह के हिस्से में सिर्फ आलोचना ही आई है। हमारा समाज चुप रहने वालों को धीर गंभीर कहता है मगर यहां तो मनमोहन सिंह इतने चुप हो गए कि अब लोग इस चुप्पी को अड़ना समझने लगे हैं।

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