सरकार ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाकर लोकतंत्र के साथ अन्याय ही किया है। सरकार ने स्पष्ट तौर पर जता दिया कि जो भी सरकार की नीतियों का सार्वजनिक रूप से विरोध करेगा, उसे कुचल दिया जाएगा।
सरकारों के लिए सत्ता की लड़ाई में हत्याएं करवाना, अपहरण आदि तो साधारण बातें हो गई। सबसे ज्यादा तो आpर्य इस बात का है कि सरकार जिस व्यक्ति का अपमान कर रही है, वह आज भी उस कमेटी का सदस्य है, जिस कमेटी ने ड्राफ्ट बिल तैयार करने का काम किया है।
कपिल सिब्बल यदि अन्ना को भला बुरा कह रहे हैं तो स्वयं अपना ही सार्वजनिक रूप से अपमान कर रहे हैं। जो इतना भी नहीं समझ सकते, वे देश के हित को कितना समझते होंगे। वैसे तो यह तथ्य भी उनके रोज के बयानों से देशवासी अच्छी तरह समझ गए हैं। यह बात भी स्पष्ट हो गई कि सरकार एक व्यक्ति से भी हारी हुई दिखाई पड़ रही है। अन्ना हजारे सरकार के गले की हaी बन गए हैं।
न निगल ही सकते, न निकाल ही सकते। ऊपर से कपिल सिब्बल जैसा सलाहकार। कल जिस प्रकार अन्ना ने कहा कि मैं कपिल के घर पर पानी भरने को स्वीकार कर लूंगा। मेरी टीम का सदस्य मेरे लिए यहां तक कह जाए, तब बाकी क्या रह गया। उचित होगा यदि कपिल सिब्बल इस विषय पर बोलना बन्द कर दें।
यह सारा मामला बाबा रामदेव जैसा नहीं है। अत्यधिक संवेदनशील भी है। अन्ना के साथ जैसे-जैसे सरकारी अड़ंगे बढ़ेंगे, देश की जनता अन्ना के साथ होती चली जाएगी। कांग्रेस के खातों में चल रहे टू जी घोटाले, खेल प्रकरण, शीला दीक्षित प्रकरण आदि से देश में पहले ही कांग्रेस विरोधी वातावरण बना हुआ है। अन्ना प्रकरण आग में घी का ही काम करेगा।
धीरे-धीरे सभी विपक्षी दल भी एक होते दिखाई देंगे। भाजपा को भी इस मामले में और लोकपाल विधेयक के स्वरूप पर भी अपना स्पष्ट रूख घोषित कर देना चाहिए। अभी तक उसका रूख अवसर के अनुसार पलटता रहा है। अभी जो कुछ सरकार कर रही है वह तो "चोरी और सीनाजोरी" दिखाई दे रहा है।
इसको तो किसी भी भाषा में लोकतंत्र नहीं कह सकते। बेहतर हो सरकार इस मुद्दे को जनता के सामने रखे, उस पर बहस हो और जनमानस को देखते हुए ही निर्णय किया जाए। जहां प्रधानमंत्री स्वयं शर्त मानने को तैयार हों, वहां छुटभैय्ये कूद-कूदकर वातावरण को विषाक्त बना रहे थे। एन.डी.ए. सरकार में भी स्व. प्रमोद महाजन इसी भूमिका को निभाते रहते थे। इनके डर कहीं और होते हैं। इसी को "विनाश काले विपरीत बुद्धि" कहते हैं।
यह इस बात से भी प्रमाणित होता है कि शासन ने जन्तर-मन्तर की अनुमति का मामला अन्त तक लटकाए रखा। चार नए विकल्प सुझाए, तो वहां भी स्वीकृति के लिए लटकाए रखा। बहाना ट्रेफिक जाम का! इसी से सरकार की नीयत साफ नहीं लगती। ऎन वक्त पर धारा-144 लगाना क्या संदेश देता है? जिस व्यक्ति को कांग्रेस की नरसिंह राव सरकार ने सन् 1992 में पkभूषण दिया, जिसे जन लोकपाल बिल का आधार स्तंभ माना, उसके साथ यह व्यवहार दोगलापन नहीं है?
बाबा रामदेव के समय भी कार्रवाई का ठीकरा सरकार ने पुलिस के माथे ही फोड़ने का प्रयास किया था। अब भी यही कर रही है। सरकार किसकी और पुलिस किसकी? पुलिस ने क्या सोचकर मीडिया को दूसरे द्वार तक जाने से रोका और तीखी प्रतिक्रिया झेली? इसी प्रकार आज अन्ना पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाना कांग्रेस का बचकानापन है।
आरोप अन्ना को कमेटी में रखते समय लगते तो उनका कोई मतलब था। आज तो अपनी इज्जत ही धूल में मिला रहे हो। सारा देश थू-थू कर रहा है। लोकपाल विधेयक पर अन्ना टीम ने देशभर में जो सर्वे कराया है, उससे यह तो पता चल ही गया है कि देश की जनता सरकार के साथ नहीं है।
ट्रस्ट की आडिट का मुद्दा उठाकर कांग्रेस ने एक और घटिया खेल खेला। जस्टिस सांवत से जांच कराने की पहल खुद अन्ना ने की थी। अन्ना का कहीं नाम भी नहीं आया। इसके विपरीत कांग्रेस नेताओं के परिवार के सदस्यों के नाम एन.जी.ओ. चल रहे हैं? क्या सब जांच कराने को तैयार हैं? क्या सभी के ट्रस्टों का नियमित आडिट होता है? अन्ना को लेकर बार-बार निर्णय बदलना सरकार की बौखलाहट को दर्शाता है। जब इस मामले में सारे मुद्दों पर संसद काम कर रही है, तो अन्ना संबंधी निर्णय भी संसद पर ही छोड़ जाने चाहिए थे।
अन्ना की गिरफ्तारी ने देश को हिलाकर रख दिया। संसद में विपक्ष का भारी हंगामा हुआ, देश भर में प्रदर्शन हुए और कुछ ही घंटों में सरकार को पीछे हटना पड़ा। मानवाधिकार आयोग ने दिल्ली पुलिस से 14 दिनों में जवाब मांगा है? दिल्ली की निचली छह अदालतों के वकील बुधवार को हड़ताल पर रहेंगे। और इन सबसे महत्वपूर्ण बात है देश के युवावर्ग का अन्ना के साथ आना। इनके संदेश एक अलग चिन्गारी की आंच जैसी लग रहे हैं। कब लपटें बन जाएं, किधर से उठें, कहां तक फैल जाए, देश को कहीं और ले जाएगी। सरकार सावचेत रहे। सत्ता में डंडा ही सब कुछ नहीं होता।
गुलाब कोठारी
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