रविवार, 4 दिसंबर 2011

"अभी न जाओ छोड़ कर कि दिल अभी भरा नहीं"

मुंबई। देवानंद रविवार को दुनिया को अलविदा कह गए। उनके निधन से पूरे देश में शोक की लहर दौड़ गई। देवानंद के निधन की खबर सुनते ही प्रशंसकों की आखों में आंसू छलक आए। इस मौके पर हर दिल बस यही गा रहा "अभी न जाओ छोड़कर कि दिल अभी भरा नहीं"। इस मौके देव साहब की जिंदगी के फलसफे को साबित करता गाना "जिंदगी का साथ निभाता चलाया गया, हर फिक्र को धुएं में उड़ाता चला गया"भी याद आ रहा है। यह गाना देव साहब की जिंदादिली की याद दिलाता है।

देेव साहब ने बिना किसी की परवाह किए हुए अपनी जिंदगी जी। 88 साल की उम्र में भी वह जिस जोश और उत्साह से काम करते रहे वह युवाओं के लिए प्रेरणा के योग्य है। देवानंद ने यह साबित कर दिया कि आदमी उम्र से नहीं मन से थकता है। देव साहब का कहना था कि वह फिल्मों से प्यार करते हैं। उनका मानना था कि आदमी गलती करता और उससे सीख लेता है। जब उनकी फिल्म असफल हो जाती थी तो वह उससे सीख लेते थे और नई फिल्म के लिए तैयार हो जाते थे ताकि पहले की गलतियां दूसरी फिल्म में न दोहराएं।

भारतीय सिनेमा जगत में लगभग छह दशक से दर्शको के दिलों पर राज करने वाले सदाबहार अभिनेता देवानंद को अदाकार बनने के ख्वाब को हकीकत में बदलने के लिए कड़ा संघर्ष करना पड़ा था। 26 सिंतबर 1923 को पंजाब के गुरदासपुर में एक मध्यम वर्गीय परिवार में जन्मे देवानंद का झुकाव अपने पिता के पेशे वकालत की ओर नहीं होकर अभिनय की ओर था। देवानंद को उनके पिता ने साफ शब्दों में कह दिया कि उनके पास उन्हें पढ़ाने के लिये पैसे नहीं है और यदि वह आगे पढना चाहते है तो नौकरी कर लें। देवानंद ने निश्चय किया कि अगर नौकरी ही करनी है तो क्यों ना फिल्म इंडस्ट्री में किस्मत आजमाई जाए।
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देवानंद पर खूब हुई पुरस्कारों की बारिश मुंबई। पk भूषण और दादा साहेब फाल्के पुरस्कारों से सम्मानित देव आनंद अपने काम यानी फिल्मों से बहुत प्यार करते थे। उनका कहना था कि वे अपने काम से कभी ऊबते व थकते नहीं। पुरस्कार पाने के लिए उन्होंने कभी काम नहीं किया लेकिन वे ढेरों पुरस्कारों से सम्मानित हुए। उन्हें मिले प्रमुख पुरस्कार हैं-

2001- पk भूषण से सम्मानित।
2002- दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित।

फिल्मफेअर अवाड्र्स
1955- फिल्म मुनीमजी के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता नामांकित
1958- फिल्म कालापानी के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के पुरस्कार से सम्मानित
1959- फिल्म लवमैरिज के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता नामांकित
1960- फिल्म काला बाजार के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता नामांकित
1961- फिल्म हम दोनों के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता नामांकित
1966- फिल्म गाइड को सर्वश्रेष्ठ फिल्म का पुरस्कार
1991- फिल्मफेअर लाइफटाइम अचीचमेंट अवार्ड

अन्य
1996 - स्टार स्क्रीन लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड
1997- भारतीय फिल्म उद्योग को उल्लेखनीय सेवाओं के लिए मुंबई अकेडमी ऑफ मूविंग अवार्ड्स से सम्मानित
2000- भारतीय सिनेमा में उल्लेखनीय योगदान के लिए अमरीका की तत्कालीन प्रथम महिला हिलेरी क्लिंटन के हाथों न्यूयार्क में सम्मानित
2001-भारतीय सिनेमा में योगदान के लिए स्पेशल स्क्रीन अवार्ड
2003- आइफा का लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड
2005- स्टॉकहोम में नेपाल के पहले नेशनल इंडियन फिल्म फेस्टिवल में विशेष राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से सम्मानित
2010- राष्ट्रीय गौरव अवार्ड
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सिर्फ 30 रूपए लेकर आए थे मुंबई मुंबई। मुंबई भारतीय सिने जगत में लगभग छह दशक से दर्शकों के दिलों पर राज करने वाले सदाबहार अभिनेता देवानंद को अदाकार बनने का ख्वाब हकीकत में बदलने के लिए कड़ा संघर्ष करना पडा था1 26 सिंतबर 1923 को पंजाब के गुरदासपुर में एक मध्यमवर्गीय परिवार में जन्मे धर्मदेव पिशोरीमल आनंद उर्फ देवानंद का झुकाव पिता के पेशे वकालत की ओर नहीं होकर अभिनय की ओर था। उन्होंने अंग्रेजी साहित्य में स्त्रातक की शिक्षा 1942 में लाहौर के मशहूर गवर्नमेंट कॉलेज मे पूरी की।

देवानंद आगे भी पढ़ना चाहते थे लेकिन पिता ने साफ शब्दों में कह दिया कि उनके पास पैसे नहीं है और यदि वह आगे पढ़ना चाहते है तो नौकरी कर लें। देवानंद ने निश्चय किया कि अगर नौकरी ही करनी है तो क्यों न फिल्म इंडस्ट्री में किस्मत आजमाई जाए। जब देवानंद ने पिता से फिल्म इंडस्ट्री में काम करने की अनुमति मांगी तो पहले तो उन्होंने इन्कार कर दिया लेकिन बाद में पुत्र की जिद के आगे झुकते हुए उन्हें इसकी अनुमति दे दी।

वर्ष 1943 में अपने सपनों को साकार करने के लिए जब वह मुम्बई पहुंचे तो उनके पास मात्र 30 रूपए थे और रहने के लिए कोई ठिकाना नहीं था1 देवानंद ने यहां पहुंचकर रेलवे स्टेशन के समीप ही एक सस्ते से होटल में कमरा किराए पर लिया। उस कमरे में उनके साथ तीन अन्य लोग भी रहते थे जो देवानंद की तरह ही फिल्म इंडस्ट्री में अपनी पहचान बनाने के लिए संघर्ष कर रहे थे। देवानंद भी उन्हीं की तरह फिल्म इंडस्ट्री में बतौर अभिनेता काम करने के लिए संघर्ष करने लगे लेकिन इससे उन्हें कुछ खास फायदा नहीं हुआ।

जब काफी दिन यूं ही गुजर गये तो देवानंद ने सोचा कि यदि उन्हें मुंबई में रहना है तो जीवन-यापन के लिए नौकरी करनी पड़ेगी चाहे वह कैसी भी नौकरी क्यों न हो। अथक प्रयास के बाद उन्हें मिलिट्री सेन्सर ऑफिस में लिपिक की नौकरी मिल गई। यहां उन्हें सैनिको की चिçटयों को उनके परिवार के लोगों को पढ़कर सुनाना होता था। इस काम के लिए देवानंद को 165 रूपए मासिक वेतन मिलना था जिसमें से 45 रूपए वह अपने परिवार के खर्च के लिए भेज देते थे।

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