मंगलवार, 11 फ़रवरी 2014

रविवार, 9 फ़रवरी 2014













कुत्ते को गाली देने वाले दोस्तों


कुत्ते को लेकर हमारे समाज की सोच अजब गजब रही है। हमने कुत्ते को लेकर गालियां बनाईं, मुहावरे बनाए और अपने बच्चे की तरह घरों में पाला भी है। मुझे नहीं मालूम कि इंसानों के सबसे विश्वासी दोस्त जानवर के लिए गाली कैसे बन गई। अक्सर कोई तैश में कह देता है कि साला कुत्ता है। साला एक नंबर का कुत्ता है। कुत्ता हरामी। कुत्ता कमीना। कुत्ते की औलाद। इस तरह की गालियां मुझे परेशान करती है। आखिर बेचारा कुत्ता ऐसा क्या करता है कि सभ्य इंसान उसे इतनी गालियां देता है।

कुत्ता होने का क्या मतलब है? क्या गाली या फिर एक ऐसा रिश्तेदार जो रातों को जाग कर हमारे लिए पहरेदार का काम करता है। हम अजीब लोग हैं। विश्वास भी करते हैं और गाली भी देते हैं।

जब भी यह सुनता हूं कि धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का। तब बहुत दुख होता है। किसी का बेघर होना गाली कैसे हो सकती है। क्या हमें मज़ा आता है ऐसे बेघर कुत्तों को देख कर? आप उस कुत्ते के बारे में क्या कहेंगे जिसका एक घर होता है जहां वह बच्चे की तरह पाला जाता है। परिवार के सदस्यों के साथ उसकी तस्वीर होती है। उसका एक नाम होता है।

मैं बताता हूं। हम ऐसे कुत्ते को भी गाली देते हैं जिसका घर होता है। बल्कि इस मामले उसके मालिक को भी गाली देते हैं। हम कह देते हैं कि अमीरों का शौक है। जबकि कुत्ता पालने वाला या उससे प्रेम करने वाला हर कोई अमीर नहीं होता।
हम मालिक का वर्ग यानी क्लास का पता करने लगते हैं। आलोचक कहता रहता है कि इंसानों के पास खाने के लिए दो रोटी नहीं लेकिन कुत्ते को अमरीकी बिस्कुट खिला रहे हैं। यह है इंसान की जानवर से वफादारी। खुद तो चाहता है कि कुत्ता उसका वफादार बना रहे लेकिन जब कुत्ता खा रहा होता है तो वह भूखे इंसानों की तरफदारी करने लगता है। तभी उसे भूखे इंसानों की याद आती है।

लगता है हमें इस बात से खुशी होती है कि कुत्ते का कोई घर नहीं। कोई घाट नहीं। गली का कुत्ता कहने में हम राहत महसूस करते हैं। एक बेचारे जानवर को जाने हम किस किस नज़र से देखते हैं।

अक्सर हाईवे पर देखता हूं। एक ही जानवर इंसानों की गाड़ी से कुचला दिखता है। कुत्ता। लगता है कि गाड़ी चलाने वाले को कुचलने के बाद अफसोस भी नहीं हुआ होगा। संतोष होता होगा कि कुत्ते को मारा है। एक बार एक प्रेस कांफ्रेस में समाजवादी पार्टी के नेता अमर सिंह ने कह दिया कि सड़क पर वही कुत्ता मारा जाता है जो कंफ्यूज़ होता है। जो तय नहीं कर पाता कि आगे जाएं या पीछे और तब तक कुचला जाता है। मुझे बहुत दुख हुआ था। बजाए इसके कि इंसान शर्म करता या अफसोस ज़ाहिर करता कि उसकी वजह से एक कुत्ता मारा गया है वो कुत्ते को ही गाली देता है।

कहने का मतलब यह है कि इंसानों ने कुत्ते की वफादारी का ईनाम नहीं दिया। वो सिर्फ दुत्कारता है। और इससे भी जी नहीं भरता तो कुत्ते को पुचकारने वाले इंसान को ही दुत्कारने लगता है।

मुझे कुत्ते से डर लगता है लेकिन गाली देने में शर्म आती है।कभी कभी ज़बान से निकलती है तो उन दोस्तों का चेहरा याद आ जाता है जिनके घरों में वह आदर के साथ पलता बढ़ता है। एक दोस्त की तरह। जहां जाने पर वह करीब आकर पुचकारता है, खेलता है और डरा कर चला जाता है। कभी अनुशासन नहीं तोड़ता। मालिक की हर बात मानता है। वहां से लौट कर हर बार सोचता हूं आखिर कुत्ता ऐसा क्या करता है कि हम उसे गाली देते हैं। उसके नाम से इंसानों को गाली देते हैं। क्या आप भी ऐसा करते हैं?

विज्ञापन का अंडरवियर काल


लक्स,डॉलर,रूपा,स्वागत। ये वो ब्रांड हैं जो ब्रेक में टीवी पर सेक्स,क्राइम और क्रिकेट के कार्यक्रम ख़त्म होते ही उनकी कमी पूरी कर देते हैं। इन दिनों टीवी पर ऐसे विज्ञापनों की भरमार हैं। देख कर तो लगता नहीं कि इनके स्लोगन किसी प्रसून जोशी या पियूष पांडे जैसे विज्ञापन विप्रों ने लिखी हो।

इन विज्ञापनों को बहुत करीब से देखने की ज़रूरत भी नहीं। देख सकते हैं क्या? देखना चाहिए। हर विज्ञापन में मर्द अपनी लुंगी तौलिया उतार कर बताता है कि अंडरवियर पहनने की जगह कौन सी है। क्या पता इस देश में लोग गंजी की जगह अंडरवियर पहन लेते हों। इसीलिए डायरेक्टर साहब ठीक से कैमरे को वहां टिकाते हैं। उक्त जगह पर अंडरवियर देखते ही युवती चौंक जाती है। डर जाती है। फिर सहज और जिज्ञासु हो जाती है। मर्दानगी,सेक्सुअलिटी और अंडरवियर का पुराना रिश्ता रहा है।


हमने वेस्ट से नकल की है। ईस्ट इंडिया कंपनी के भारत आने के बाद से ही पश्चिम मुखी भारतीयों ने अंडरवियर को स्वीकार किया होगा। पहला खेप मैनचेस्टर से उतरा होगा बाद में अपने कानपुर में बनने लगा होगा। इसमें किसी को शक हो तो एक भी विज्ञापन ऐसा दिखा दे जिसमें लंगोट के मर्दानापन की दाद देते हुए उसके टिकाऊ होने का स्लोगन रचा गया हो। भारतीय संस्कृति के प्रवर्तकों के बाद समर्थकों के इस युग में कोई भी ऐसा नहीं मिलेगा जो लंगोट को भारतीय मर्दानगी का प्रतीक बनाने के लिए कंपनी बनाये,टीवी पर विज्ञापन दे। कहे-लंगोट- चोट न खोट। सब के सब इस पाश्चात्य अंडरवियर काल में बिना प्रतिरोध किये जी रहे हैं।

आप चाहे जितना कमज़ोर हों होज़ियरी के अंडरवियर बनियान को पहनते ही ताकतवर हो जाते हैं। विज्ञापनों में अंडरवियर प्रदर्शन के स्थान का भी आंकलन कीजिए। पता चलेगा कि अंडरवियर पहनने या उसे प्रदर्शित करने की जगह बाथरुम,बेडरुम या स्वीमिंग पूल ही है।अभी तक किसी विज्ञापन में अंडरवियर पहनन कर कारपोरेट रूम में आइडिया देते हुए शाहरूख़ ख़ान को नहीं दिखाया गया है।अंडरवियर के विज्ञापनों में कोई बड़ा माडल नहीं दिखता। नाकाम और अनजान चेहरों की भीड़ होती है। सनी देओल जैसे बड़े हीरो सिर्फ गंजी या बनियान के विज्ञापन में ही नज़र आते हैं।

कोई नहीं कहता कि अंडरवियर अश्लील है।यह बात अभी तक समझ नहीं आई है कि अंडरवियर के विज्ञापन में अचानक युवती कहां से आ जाती है।वो स्वाभाविक रुप से वहीं क्यों देखती है जिसके देखते ही आप रिमोट उठा लेते हैं कि ड्राइंग रूम में कोई और तो नहीं देख रहा।यही बात है तो कॉलेज के दिनों में लड़के ली की जीन्स और वुडलैंड की कमीज़ पर पैसा न बहाएं। सौ रुपया अंडरवियर पर लगाए और यही पहन कर घूमा करें। लड़कियां आकर्षित हो जाएंगी।एक सर्वे यह हो सकता है कि लड़कियां लड़कों में क्या खोजती है? अंडरवियर या विहेवियर। डॉलर का एक विज्ञापन है।लड़का समुद्र से अंडरवियर पहने निकलता है। पास में बालीवॉल खेल रहीं लड़कियों की उस पर नज़र पड़ती है।देखते ही वो अपना बॉल फेंक देती हैं। पहले अंडरवियर देखती हैं फिर नज़र पड़ती है ब्रांड के लेबल। अच्छे ब्रांड से सुनिश्चित हो लड़कियां अंडरवियर युक्त मर्द को घेर लेती हैं। अंत में एक आवाज़ आती है- मिडास- जिस पर सब फ़िदा। एक विज्ञापन में एक महिला का कुत्ता भाग जाता है। वो कुत्ते को पकड़ते हुए दौड़ने लगती हैं। तभी कुत्ते को पकड़ने वाले एक सज्जन का तौलिया उतर जाता है। सामने आता है अंडरवियर और उसका ब्रांड। युवती फ़िदा हो जाती है। इसी तरह अब लड़कियों के लिए भी विज्ञापन आने लगता है। एक विज्ञापन में टीवी फिल्म की मशहूर अदाकारा(नाम नहीं याद आ रहा) अचानक उठती हैं और लड़कियों को गाली देने लगती है कि तुम सब ठेले से क्यों खरीदती हो। उन्हें ललकार उठती हैं। यह ललकार उनकी क्लास रूम से बाहर जाती है। पूछती है कि जब लड़के पहन रहे हैं,तो आप लोग क्या कर रही हैं। दूसरी तरफ लड़कियों के उत्पादों में लड़के नहीं आते। वहां या तो एक लड़की होती है या कई लड़कियां। उन्हें पहनता देख या पहना हुआ देख कोई मर्द खीचा चला नहीं आता। यह विज्ञापन जगत का अपना लिंग आधारित इंसाफ है। अवमानना से बचने के लिए चुप रहूंगा।


मर्दानगी की सीमा कहां से शुरू होती है और कहां ख़त्म अंडरवियर कंपनी को मालूम होगा। इतने सारे विज्ञापन क्या बता रहे हैं? क्या अंडरवियर कंपनियों में यह विश्वास आ गया है कि वो अब टीवी पर भी विज्ञापन दे सकते हैं। हाईवे और हाट तक सीमित नहीं रहे। अंग्रेज़ी न्यूज़ चैनलों पर इस तरह के विज्ञापन का आक्रमण कम है।कहीं ऐसा तो नहीं कि हिंदी प्रदेशों के उपभोक्ताओं का अंडरवेयर पहनने का प्रशिक्षण किया जा रहा है।प्रिंट में तो इस तरह के गुप्त वस्त्रों का विज्ञापन आता रहता है। लेकिन टीवी पर संवाद और संगीत के साथ इतनी बड़ी मात्रा में सार्वजनिक होता देख विश्लेषण करने का जी चाहा।


यह भी भेद बताना चाहिए कि गंजी के विज्ञापन की मर्दानगी अलग क्यों होती है। क्यों सनी देओल गंजी पहन कर गुंडो को मार मार कर अधमरा कर देता है। जबकि उसी कंपनी का गुमनाम मॉडल जब अंडरवियर पहनता है तो उसकी मर्दानगी दूसरी किस्म की हो जाती है। वो किसी को मारता तो नहीं लेकिन कोई उस पर मर मिटती है। ख़ैर इस बाढ़ से परेशानी हो रही है। मुझे मालूम है कि देश को स्कूलों में सेक्स शिक्षा से एतराज़ है। अंडरवियरों के विज्ञापन में सेक्सुअलिटी के प्रदर्शन से किसी को एतराज़ नहीं। इसका मतलब यह नहीं कि कल कोई मानवाधिकार आयोग चला जाए। यहां मामला इसलिए उठ रहा है कि इसे समझने की ज़रूरत है। इतने सारे विज्ञापनों का अचानक आ जाना संदेह पैदा करता है। इनका कैमरा एंगल बदलना चाहिए। हर उत्पाद का विज्ञापन होना चाहिए। उत्पादों को सेक्सुअलिटी के साथ मिक्स किया जाता रहा है। बस इसमें फर्क इतना है कि मामला विभत्स हो जाता है। बहरहाल न्यूज़ चैनलों को गरियाने के इस काल में उस विज्ञापन को गरियाया जाना चाहिए। कुछ हो न हो थोड़ी देर के लिए न्यूज़ चैनलों को आराम मिल जाए। वैसे भी एक अंडरवियर का विज्ञापन यही तो कहता रहा कई साल तक-जब लाइफ़ में हों आराम तो आइडिया आते हैं। लक्स अंडरवियर का विज्ञापन कहता है कि अपना लक पहन कर चलो।