शनिवार, 24 सितंबर 2011

गाड़ी चलानी नहीं, इसे आग लगानी है!

स्कूल में पढ़ा था: प्यार “अंधा” होता है, और यह प्यार अगर सत्ता और कुर्सी के लिए हों, तो वह “बहरा”, “लूला” और “लंगड़ा” भी हो जाता है। भारत जैसे विशाल देश में जहाँ 120 करोड़ की आबादी, वैसे पांच साल तक चिल्लाती तो जरुर है, सरकार के खिलाफ, शासन के खिलाफ, सत्ता के दलालों के खिलाफ, लेकिन जब “फैसले” का वक़्त आता है तो भीगी बिल्ली की तरह दुबक जाती है। पिछले 65 सालों से यही होता आया है, और आगे भी होता रहेगा

इन दिनों फेसबुक पर एक चुटकुला बहुत घूम रहा है। एक युवक दिल्ली के एक पेट्रोल पम्प पर अपनी गाड़ी लेकर पहुंचा… पम्प के कर्मचारी ने बड़ी ही विनम्रता से पूछा: “कितने का पेट्रोल डाल दूं?” युवक अपने आंसू पोछते हुए बोला, “अरे यार 20-25 रुपये का पेट्रोल इधर-उधर गाड़ी पर छिड़क दो, चलानी नहीं, इसे आग लगानी है!”
पम्प का कर्मचारी अचंभित रह गया, लेकिन सांस खींच कर बोला:”भगवान का शुक्र है, मेरे पास गाड़ी नहीं है, नहीं तो अपने बाल-बच्चों के साथ उसे भी जलाना पड़ता।”

यह चुटकुला दरअसल बढ़ती मंहगाई में लोगों की बदलती सोच को दिखाता है। हकीकत भी यही है… इस देश के प्रधान मंत्री विश्व के सभी प्रधानमत्रियों या राष्ट्राध्यक्षों की तुलना में भले ही न्यूनतम वेतन लेने का दावा करते हों, लेकिन देश का हरेक आदमी 24 घंटे की दिन-रात में कितनी बार जीता है और कितनी बार मरता है, उसने यह गिनती करना भी छोड़ दिया है क्योंकि- बाकि जो बचा महंगाई मार गयी.

आंकड़े कहते हैं कि सिंगापुर के प्रधान मंत्री सबसे ज्यादा कमाने वाले नेताओं की लिस्ट में टॉप पर हैं। उन्हें अपने देश के प्रति व्यक्ति जीडीपी का 40 गुना वेतन मिलता है। उनकी तुलना अगर भारतीय प्रधानमंत्री से की जाए तो मनमोहन सिंह दुनिया के उन नेताओं में से हैं जिन्हें बहुत ही कम पैसे मिलते हैं। उनकी सैलेरी महज 4,104 डॉलर है। अमेरिका के राष्ट्रपति को प्रति माह 4 लाख डॉलर मिलते हैं जो कि उनके देशवासियों की प्रतिव्यक्ति आय का लगभग 10 फीसदी है। चीन के सवोर्च्च नेता को 10,633 डॉलर मिलते हैं।

लोग कहते हैं कि डॉ. मनमोहन सिंह भारत के अब तक के सबसे अनोखे “प्रधानमंत्री” हैं। वे एक कुशल राजनेता के साथ-साथ एक अच्छे विद्वान, अर्थशास्त्री और विचारक भी हैं। एक मंजे हुये अर्थशास्त्री के रुप में उनकी ज्यादा पहचान है। अपनी कुशल और ईमानदार छवि की वजह से सभी राजनैतिक दलों में उनकी अच्छी साख है। लोकसभा चुनाव 2009 में मिली जीत के बाद वे जवाहरलाल नेहरू के बाद भारत के पहले ऐसे प्रधानमंत्री बन गए हैं जिन्हें पांच वर्षों का कार्यकाल सफलता पूर्वक पूरा करने के बाद लगातार दूसरी बार प्रधानमंत्री बनने का अवसर मिला है। उन्होंने 21 जून 1991 से 16 मई 1996 तक नरसिंह राव के प्रधानमंत्रित्व काल में वित्त मंत्री के रूप में भी कार्य किया है। वित्त मंत्री के रूप में उन्होंने भारत में आर्थिक सुधारों की शुरुआत की थी।

परन्तु, सन 1971 से 2011 तक यमुना का जल कई बार उत्प्लावित हुआ जब मनमोहन सिंह भारत के वाणिज्य मंत्रालय में आर्थिक सलाहकार के तौर पर नियुक्त किये गये। इसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहींदेखा. सन 1972 में उन्हें वित्त मंत्रालय में मुख्य आर्थिक सलाहकार बनाया गया। इसके बाद के वर्षों में वे योजना आयोग के उपाध्यक्ष, रिजर्व बैंक के गवर्नर, प्रधानमंत्री के सलाहकार और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष रहे हैं। भारत के आर्थिक इतिहास में हाल के वर्षों में सबसे महत्वपूर्ण मोड़ तब आया जब डा. सिंह भारत के वित्त मंत्री बने। उन्हें भारत के आर्थिक सुधारों का प्रणेता माना गया है।

निःसंदेह एक वित्त मंत्री के रूप में जब उन्होंने अपना कार्यभार संभाला तो उन्हें एक ऐसी अर्थव्यवस्था मिली जो दीवालिया थी। विदेशी मुद्रा कोष पूरी तरह खाली था। देश की ऋण साख गंभीर संदेह के घेरे में थी। लेकिन उन्होंने अर्थव्यवस्था को बदल दिया और यह सुनिश्चित किया कि यह दीवालिया अर्थव्यवस्था जो उन्हें विरासत में मिली है, विश्व की सबसे तेज गति से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में शामिल हो जाए। परन्तु, अर्थशास्त्र के अध्यापक के तौर पर विख्यात प्राध्यापक को आज क्या हों गयाहै? यह मैं नहीं पूरा देश पूछ रहा है.

बहरहाल, भूकंप के बाद भूस्खलन और तेज बारिश के चलते हिमालय की गोद मे बसे उत्तर-पूर्व के राज्य सिक्किम मे राहत और बचाव का कार्य गति नहीं पकड़ पा रहा है। इसके कारण राज्य में मरने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है। सेना, सीमा सड़क संगठन सहित राहत के कार्य मे जुटी एजेंसियों को आगे बढ़ने मे भारी बाधाएं आ रही है। राज्य मे नुकसान का सही अंदाजा अभी तक नहीं लगाया जा सका है। बिहार मे मृतकों की संख्या बढ़कर 12 हो गई है, जबकि पश्चिम बंगाल मे सात लोग मारे गए हैं।

लेकिन हमारे माननीय प्रधान मंत्री डा० मनमोहन सिंह की प्राथमिकता, संयुक्त राष्ट्र महासभा की बैठक मे भाग लेना है। वे न्यूयॉर्क के लिए रवाना हो रहे हैं, जापान के प्रधान मंत्री नोडा से मिलना, लीबीया के बागी सरकार को मान्यता देना और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का विस्तार उनके एजेंडा मे है|

सिक्किम जाकर डॉ० सिंह अब अपने जख्मों को फिर हरा नहीं करना चाहते क्योंकि, पिछले कुछ महीने से उनकी छवि, उनकी सरकार और उनकी पार्टी हाल के भूकंप से भी ज्यादा जबरदस्त झटके खा चुकी है। अपनी छवि की इमारत मे दरार पड़ते उन्होंने खुद देखा है। अपनी सरकार की विश्वसनीयता को ढहते महसूस किया और अपनी पार्टी की साख जनता की नजर मे गिरते हुए देखा है।

जहां एक तरफ भ्रष्टाचार के भूकंप ने मनमोहन की सरकार को हिला दिया, वहीं महंगाई के भूस्खलन ने आम आदमी को दबा दिया। यह भ्रष्टाचार रूपी ज़लज़ला थमा नहीं, कि उच्चतम न्यायालय ने 2-जी, काले-धन जैसे मामलों मे एक के बाद एक झटके दिए।

सिक्किम और अन्य पूर्वोतर प्रदेशों मे तो बस इतना ही हुआ, लेकिन यूपीए सरकार को तो एक भयंकर तूफ़ान का भी सामना करना पड़ा, जिसका नाम था अन्ना हजारे। यह तूफ़ान नहीं ज्वालामुखी है, जो दुबारा फट सकता है, चूँकि भ्रष्टाचार का लावा अभी भी उबल रहा है। इस स्वयं आमंत्रित आपदा मे राहत के लिए कोई सेना नहीं आएगी, ना कोई बाहर से मदद मिलेगी। अब तो अमेरिकी कांग्रेस जो कभी डॉ० सिंह को भारत के तारणहार कहता थकता नहीं था, वह भी मोदी की दुहाई देने लगा है। यूपीए अध्यक्ष विदेश मे सर्जरी के लिए क्या चली गईं, कांग्रेस को महसूस होने लगा कि औरत ना हो तो चार दिन मे घर का क्या हश्र होता है। इतने बडे भ्रष्टाचार के प्रकरण के बाद भी अपनी सरकार मे, अपनी पसंद का फेर-बदल भी नहीं कर पाए। रेल दुर्घटना होती है तो मंत्री घटना स्थल पर जाने से इनकार करते हैं|

घर मे चैन ना मिला तो, बंगलादेश की ओर रुख किया, लेकिन वहाँ भी ममता का साथ ना मिला। ‘ ना देश मे समता, ना पड़ोस मे ममता ‘ बेचारे डॉ० सिंह करें तो क्या करें? वे अपनी सीमाओं को समझते हैं, जानते हैं कि राजतिलक हुआ है, मगर वो राम नहीं भरत हैं। सिंहासन पर तो भगवन के खड़ाऊ रखे हैं और राम का इंतज़ार हो रहा है। परन्तु राम भटक रहे हैं वन-वन, कभी भट्टा परसौल, तो कभी महाराष्ट्र के मावाल में तलाश रहे हैं, जन समर्थन रूपी सीता को| समझ नहीं आ रहा कि किससे लड़ें? विरोधी के प्रधान मंत्री उम्मीदवार भी तो दशानन रूपी हैं, कभी मोदी, कभी सुषमा, कभी जेटली, तो कभी राजनाथ| एकमात्र संकटमोचक प्रणब मुखर्जी अकेले किन-किन दैत्यों से लड़ेंगे? और फिर साथ देने वालों पर कहाँ तक भरोसा करें? शरद पवार पर या करूणानिधि पर, जिन्होंने यह पूछने पर भी संकोच नहीं किया कि,”राम ने किस इंजीनियरिंग कॉलेज से डिग्री हासिल की?” ऐसे मे डॉ० सिंह क्या करें, ना करें? स्थिति भरत की, परन्तु विडंबना भीष्म पितामह जैसी। ऐसे मे तो एक ही मार्ग है, मोहमाया से या कम से कम, मायावती और जयललिता से दूर भागो। सिक्किम जाकर अपने जख्मो को क्यों ताजा करें? चलें दूर गगन की छांव में- ‘अमेरिका में’। संयुक्त राष्ट्र में क्या पता हिना रब्बानी खार ही उन जख्मों पर मरहम लगा दे|

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें