शुक्रवार, 5 मार्च 2010

अब दलित नाम की माया

राजनाथ सिंह भी अब दलितों के घर खाने लगे हैं। राहुल गांधी तो खा ही रहे हैं। आजकल दलित फूड काफी चल निकला है। पोलिटिकली। पंजाब के उभार के दिनों में जब वहां के ट्रक ड्राईवर देशाटन पर निकलें तो पंजाबी ढाबा खुल गए। अब दलित ढाबा और दलित रिसोर्ट खोलने का टाईम आ गया है। दलित व्यंजन। मेनू में दलित नेताओं के नाम पर रखें जायें। फूले फुल्का। अंबेडकर आचार। मायावती मलाई। कांशीराम ककड़ी। शाहू पनीर। इन महापुरुषों के नाम पर बने इन व्यंजनों को तभी परोसा जाए जब खाने वाला कोई नेता इनकी एक किताब पढ़ ले। दलित ढाबे में बनाने वाले भी दलित होंगे। जो खायेगा उसे मैनेजर के साथ फोटे खिंचवा कर दिया जाएगा ताकि वे अपनी पार्टी के नेताओं को दिखा सकें। वहां पर सारे महापुरुषों की मूर्तियां भी लग सकती हैं। हर महापुरुष के हिसाब से उनके इलाके का व्यंजन हो। ये भी एक आइडिया हो सकता है। यानी अगर आप देश भर के सभी दलित महापुरुषों के इलाके का व्यंजन खा लें तो बड़े पोस्ट के दावेदार हो सकते हैं। दलित रिसोर्ट अच्छा आइडिया है। इसमें आप स्विमिग पूल में नहाने से लेकर शराब पीने की व्यवस्था हो और दलित चिंतन के एक्सपर्ट बुला कर लंबे लंबे भाषण सुनायें जायें। फिर अगले दिन दोपहर उनका टेस्ट हो और पास हो जाएं तो सर्टिफिकेट मिले। यह लिखा हुआ कि अमुक शर्मा ने पांच प्रकार के दलित व्यंजनों का किया है और पांच किस्म के विशेषज्ञों का भाषण भी सुना। बोर्ड लगा दे कि हमारे यहां दलित भोजन का उत्तम प्रबंध है। उचित दर की दुकान। खाने पीने को लेकर दलित आत्मविश्वास वैसे ही नहीं झलकता है। मेरी एक परिचित हैं जो होटल चलाती हैं। उनसे कहा कि आप पर स्टोरी करूंगा तो महिला ने कहा कि लोग जान जायेंगे तो खाना खाने नहीं आएंगे।


शुरू में तो ये भोजन विश्राम यात्रा ठीक लगी लेकिन अब यह दलितों को जानने के अलावा नौटंकी लगने लगी है। इसलिए नहीं कि ठाकुर राजनाथ सिंह भी खाने लगे हैं बल्कि इसलिए कि हो क्या रहा है। राजनाथ सिंह कब से दलितों के बारे में बात करने लगे। एक तरफ वो दलितों के घर खाना खाते हैं और दूसरी तरफ कहते हैं कॉमनवेल्थ गेम्स में बीफ मत परोसो। उन्हें खाने के संस्कारों की विविधता के बारे में कुछ नहीं मालूम। वो धर्म और जाति की राजनीति का कॉकटेल अब तो न बनायें। चार साल तक बीजेपी के अध्यक्ष रहते हुए तो कुछ किया नहीं। अब फोटोकॉपी पोलिटिक्स कर रहे हैं।


लेकिन क्या यह ठोस उपाय है? सारे गांवों की बसावट जात के आधार पर है। बहुत पहले मैंने इस ब्लॉग पर लिखा भी था कि गांवों की पारंपरिक बसावट को ध्वस्त कर दिया जाए और एक नया मास्टर प्लान बने। गांवों में इस तरह से घरों को बसाया जाए ताकि एक घर पंडित का हो और दूसरा दलित का, उसका पड़ोसी ठाकुर का। वैसे भी सरकार इंदिरा आवास योजना के तहत गरीबों के लिए घर बनवाती ही है। कई सरकारी योजनाएं हैं जिनके तहत गांवों में गरीबों के लिए घर बनते हैं। इन घरों को गांव के किसी छोर पर न बनाया जाए। आज भी इंदिरा आवास के घर दलितों की बस्ती में ही बनते हैं। ये चलन तुरंत बंद होना चाहिए। इंदिरा आवास के तहत सभी जाति के गरीबों को घर मिले। जब तक हम बसावट में मिलावट नहीं करेंगे, दलितों को जानने के लिए उनकी बस्तियों में जाते ही रह जाएंगे। अलग से जाकर नौटंकी करने की ज़रूरत न पड़े इसलिए गांवों की बसावट को ध्वस्त करने की योजना पर काम करना चाहिए। बवाल होगा तो होगा। ठाकुर साहब का घर एक छोर पर और जाटव जी का एक छोर पर नहीं चलेगा।

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