शौक-ए-दीदार अगर है तो नज़र पैदा कर। स्कूल की मिट चुकी तमाम स्मृतियों में से एक यही लाइन बची रह गई। बाकी आज तक नहीं समझ पाया कि दस बारह सालों तक स्कूल क्यों गया? बरसो से मन में कई बातों का तूफ़ान चल रहा है. दिल करता है की अब उसे शब्दों के पिरो दूँ . ब्लॉग के मंच पर पेश है मेरी अभिव्यक्ति.
रविवार, 7 मार्च 2010
यहाँ भी है भेंस पानी और बचपन
भैस पर बैठा बच्चा बिहार की पहचान बन गया है.वह भैसों और सवारों का अनुपात बिहार में कैसा है ये तो पता नहीं.लेकिन कोटा में अब भेंसो की पीठ खाली है, कोटा आया यहाँ कोई ठाकरे भी नहीं है.
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