शनिवार, 24 सितंबर 2011

ये भी सोचिये

आज विश्च अर्थव्यवस्था में बेशक भारत का स्थान और मुकाम ऐसा हो गया है कि उसकी हठात ही उपेक्षा नहीं की जा सकती दूसरा बडा सच ये है कि भविष्य की शक्तशाली अर्थव्यवस्थाओं में भी भारत की गणना की जा रही है देश मेंबढते हुए बाज़ार की संभावनाओं के मद्देनज़र ये आकलन बिल्कुल ठीक जान पडता है आज देश चिकित्सा, विज्ञान , शोध , शिक्षा आदि हर क्षेत्र में निरंतर विकास की ओर अग्रसर है किंतु इसके बावजूद भारत की गिनती धनी संपन्न राष्ट्र में अभी नहीं की जा स्कती है आज भी देश का एक बहुत बडा वर्ग शिक्षा , गरीबी , और यहां तक कि भूख की बुनियादी समस्या से जूझ रहा है । आज भी देश में प्रति वर्ष सैकडों गरीबों की मृत्यु भूख और कुपोषण से हो रही है , जिसके लिए थकहार कर सर्वोच्च न्यायालय को सरकार को सख्त निर्देश देने पडे ।

इस स्थिति में जब आम जनता ये देखती है कि एक तरफ़ सरकार रोज़ नए नए करों की संभावनाएं तलाश कर राजकोष को भरने का जुगत लगाती है । वहीं दूसरी तरफ़ वो संचित राजकोष के धन की बर्बादी के प्रति न सिर्फ़ घोर उदासीन है बल्कि इसमें दोहरी सेंधमारी किए जा रहे हैं । पिछले कुछ वर्षों में राजनीतिक भ्रष्टाचार , घपले , घोटाले किए जाने के लिए एक अजीब सी रेस जैसी लगी हुई है । किसी को न तो किसी कानून का भय है न ही जनता की भावना और विश्वास की फ़िक्र । यदि घपलों -घोटालों को थोडी देर के लिए आपराधिक कृत्य की श्रेणी में रखकर व सभी राजनीतिज्ञों को इसमें सम्मिलित नहीं मानते हुए भी यदि कुछ तथ्यों पर गौर करें तो वो स्थिति भी आज कम भयावह नहीं है ।

समाजसेवा का पर्याय मानी जाने वाली राजनीति आज न तो समाज के करीब रही न सेवा के । भारत जैसे गरीब देश में भी आम चुनाव के नाम पर जितना पैसा खर्च किया जाता है यदि उसका आकलन किया जाए तो लगभग उतने पैसों से कम से कम दो शहरों का संपूर्ण विकास किया जा सकता है । एक वक्त हुआ करता था जब देश के सबसे बडे पदों पर बैठे प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति तक अपने वेतन को हाथ भी नहीं लगाते थे । अब इन आदर्शो और मूल्यों का कोई अर्थ नहीं है । आज जनसेवा के लिए बने और बनाए ओहदों में से कोई भी वेतन-भत्तों , सुख सुविधा अधिकारों के बिना नहीं है । आज इन तमाम जनप्रतिनिधियों को न सिर्फ़ वेतन के रूप में मोटी रकम दी जा रही है बल्कि यात्रा भत्ता, बिजली , पानी , दफ़्तर का रख-रखाव आदि के नाम पर लाखों रुपए की रियायत दी जाती है । न सिर्फ़ इन जनप्रतिनिधियों पर बल्कि इनसे संबंधित सभी विभागों , संस्थाओं इनसे जुडे सुरक्षा अधिकारियों के लाव लश्कर इत्यादि पर भी भारी भरकम खर्च किया जा रहा है । सबसे अधिक दुख की बात ये है कि सारा खर्च उसी पैसे से किया जा रहा है जो सरकार प्रति वर्ष नए नए कर लगाकर आम आदमी से वसूल रही है ।

इन जनप्रतिनिधियों से आज आम जनता को दोहरी शिकायत है । पहली शिकायत तो ये कि इतना सुविधा संपन्न कर दिए जाने के बावजूद भी ये अपने कार्य और दायित्व को निभाना तो दूर इनमें से बहुतायत प्रतिनिधि तो निर्धारित सत्र तक में भाग नहीं लेते हैं । स्थिति ऐसी है कि प्रति वर्ष विभिन्न सत्रों के दौरान बाधित की जाने वाली कार्यवाहियों का दुष्परिणाम ये निकलता है बनने वाले कानून भी सालों साल लटकते चले जाते हैं या कि जानबूझ कर ऐसे हालात बनाए जाते हैं कि उन कानूनों को पास करने से बचा जा सके । इससे अलग इन विभिन्न सत्रों के दौरान किया गया सारा खर्च व्यर्थ चला जाता है । इस दौरान हुए खर्च का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है इस दौरान कैंटीन में उपलभ्द कराए जाने वाले भोजन की थाली की कीमत पांच या दस रुपए होती है जबकि वास्तव में उसकी कीमत उससे तीस चालीस गुना अधिक होती है । न सिर्फ़ भोजन बल्कि प्रति वर्ष इन जनसेवकों को जाने क्या सोच कर रियायती दरों और मुफ़्त बिजली , पानी , यात्रा आदि की सुविधाएं दी जाती हैं , जबकि इसका हकदार सबसे पहले देश का एक गरीब होना चाहिए ।


अब समय आ गया है कि जनता को , अपने जनप्रतिनिधियों से अपेक्षाएं बढानी चाहिए , उनसे पूछा जाना चाहिए कि आखिर कौन सी न्यूनतम योग्यता है वो जो उन्हें आपका प्रतिनिधि बनाने के काबिल बनाती है । इन तमाम जनसेवकों के काम का रिपोर्टकार्ड जनता को तैयार करना चाहिए और उसीके आधार पर उन्हें न सिर्फ़ उनका वेतन , उनके अधिकार बल्कि आगे बने रहने का हक भी , सिर्फ़ और सिर्फ़ जनता ही निर्धारित करे । अब ये बहुत जरूरी हो गया है कि जनसेवकों को ये समझाया जाए कि देश का प्रतिनिधि वैसा ही रहेगा , करेगा जैसा कि देश की जनता रहती सोचती है । एक सेवक को हर हाल में अब स्वामी और तानाशाह स्वामी बनने से रोकना ही होगा

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें