गुरुवार, 16 जून 2011

सोशल मीडिया की ताकत

मिस्र में होस्नी मुबारक के ख़िलाफ आंदोलन को हवा देने में फेसबुक,ट्विटर,मोबाइल फोन और यू ट्यूब का बड़ी भूमिका सामने आ रही है। लोग महंगाई से तड़प रहे हैं, सरकार भ्रष्टाचार में डूबी है, मुख्यधारा की मीडिया सत्ता से सांठगांठ कर शांत तो जनता क्या करती। वो सोशल मीडिया के ज़रिये आपस में बात करने लगी। होस्नी मुबारक के सलाहकार इस ताकत को तब तक नहीं समझ पाए जब तक ट्यूनिशिया से चली आंधी उनके महल को उखाड़ने न आ पहुंची। फेसबुकियों ने अपनी आलोचनाओं से ऐसी हवा खड़ी कर दी कि हज़ारों लाखों लोग तहरीर स्कावयर की तरफ निकल पड़े। मिस्र के एक प्रसिद्ध ब्लॉगर अब्बास को सरकार ने गिरफ्तार भी कर लिया। अब्बास ने भी आश्चर्य व्यक्त किया कि इतने प्रदर्शनकारी तो कभी देखे ही नहीं। मुबारक विरोधी एक फेसबुक समूह से तो नब्बे हज़ार लोग जुड़ गए। इतनी बड़ी संख्या तो आज किसी नेता की सभा में नहीं होती है। पैसे देकर भी लोग लाए जाएं तब भी इतनी भीड़ नहीं आएगी।

अभी तक हम यही समझते रहे हैं कि लोग फेसबुक पर चैट करने वक्त अपने एकाकीपन की बोरियत को खाली कर रहे हैं। ब्लॉगर आत्ममुग्धता का शिकार है। ट्विटर करने वाला बेकार है। सिर्फ इस बात से खुश होना चाहता है कि वह अमुक फिल्म स्टार के ब्लॉग या ट्विटर से जुड़ा है। हिन्दुस्तान में ही लोग महंगाई और भ्रष्टाचार से त्रस्त है। राजनीतिक दलों से उनका विश्वास उठ रहा है तो वो आपस में बात कर रहे हैं। दलों के प्रवक्ता प्रेस कांफ्रेंस में एक दूसरे के बयानों की धज्जियां उड़ाकर खुश हैं। ठीक है कि हिन्दुस्तान में करीब सात करोड़ लोग ही इंटरनेट का इस्तमाल करते हैं। इस सात करोड़ में से ज्यादातर मुंबई,दिल्ली और हैदराबाद जैसे कोई दस महानगरों में ही रहते हैं। फिर भी इनकी ताकत को अनदेखा करना किसी राजनीतिक मूर्खता से कम नहीं है। मैसूर में रामसेने के खिलाफ दिल्ली की एक लड़की ने फेसबुक पर पिंक चड्ढी कैंपने चलाकर अच्छा खासा आंदोलन खड़ा कर दिया था। आज भी फेसबुक पर कई तरह के ग्रुप बने हुए हैं जिनसे हज़ारों लोग जुड़े हुए हैं। ये सभी अल्पकालिक आंदोलनकारी कभी भी पूर्णकालीक आंदोलनकारी में बदल सकते हैं।

आखिर लोग कहां जाए। न्यूज़ चैनलों से आम लोग ग़ायब हैं। कुछ बड़े लोगों के आस-पास ख़बरें घूम रही हैं। उनके इस्तीफा देने या खंडन कर देने भर से पत्रकारिता का महिमामंडन हो जाता है। हिन्दुस्तान में न सही काहिरा और ट्यूनिशिया में उसे एक नया मंच मिल गया है। इसकी ताकत का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि मिस्र में फेसबुक, ट्विटर, न्यूज साइट पर प्रतिबंध लगा दिया गया। कई क्षेत्रों में मोबाइल सेवाएं बंद कर दी गईं। इससे यह धारणा भी बदल जानी चाहिए कि आंदोलन के लिए राजनीतिक दल या नेता को होना ज़रूरी है। कम से कम ट्यूनिशिया या मिस्र में घोषित तौर पर ऐसा नहीं दिखता। लोग अपनी रोज़मर्रा की दिक्कतों से इतने आज़ि़ज आ चुके हैं कि ट्युनिशिया के दक्षिणपंथी इस्लामी संगठन के पीछे खड़े हो गए। मगर जब विपक्षी दल के नेता देश लौटे हैं तो ऐसे भी नारे लगे कि हमें मज़हब के नाम पर बेतुके कानून नहीं चाहिए।

सबक यह है कि सरकारें प्रेस खरीदने या निंयत्रित करने की कोशिश न करें। लोगों के हाथ में सोशल मीडिया नाम का अस्त्र हाथ लग गया है। ट्यूनिशिया में ही कई ब्लॉगर, नेट आंदोलनकारी जगह-जगह से सूचनाएं और वीडियो अपलोड कर रहे थे। जब तक सरकार उन तक पहुंचती, वे सभी किसी और छद्म नाम से और अधिक लोगों तक पहुंच चुकी होती थीं। सरकारी सेंशरशिप का जवाब मिल चुका है। इंटरनेट तकनीकी की भाषा में इसे साइबरसबवर्ज़न कहते हैं। मतलब आप मेन रोड से नहीं जाने देंगे तो हम गली कूचों से निकल कर गंतव्य तक पहुंच जायेंगे। किसे पता था कि तानाशाहों के मुल्क में सोशल मीडिया लोकतंत्र कायम करने का हथियार बन जाएगा।

इन्हें प्रतिबंधित करने का रास्ता और जोखिम भरा है। ईरान और पाकिस्तान ने भी फेसबुक और यू ट्यूब पर बैन लगा कर देख लिया है। सीरिया में भी फेसबुक के चैट पर रोक लगाई जा चुकी है। चीन में नेट नेशनलिस्ट से सरकार को भी डर लगने लगा है। चीन की विदेश नीति का हिस्सा बनता जा रहा है कि किसी फैसले का इंटरनेट से जुड़े समूह किस तरह की प्रतिक्रिया व्यक्त करेंगे। सरकारों को यह समझ लेना चाहिए कि उनके फैसले से आम जनता के बीच बढ़ने वाली खाई किसी भी मंच को राजनीतिक बना सकती है। वो अगर सोशल मीडिया पर अंकुश लगाने की तैयारी में जुटेंगी तो लोग कोई और रास्ता ढूंढ लेंगे। ग्लोबल जगत की पैदाइश ये सोशल मीडिया तथाकथित उदारीकरण से जन्म ले रही असामनताओं को आवाज़ दे रही हैं।

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